गौरव सोलंकी की कविता, ''मैं बिक गया हूँ''

एक वर्ष पहले अपने ब्‍लॉग शब्‍दों की दुनिया पर  गौरव सोलंकी की एक कविता पोस्‍ट की थी, कविता इस ब्‍लॉग के मिजाज के अनुकूल है, इसलिए दोबारा यहां पेश कर रहा हूं...कुछ लोगों ने इस कविता को गौरव की निराशा बताया तो, किसी ने इस पर कविता के मानदंडो पर खरा नहीं उतरने का आरोप लगाया। लेकिन मेरा मानना है कि कभी-कभी विचार कविता की सारी सीमाओं को तोड़ कर आपके सामने आते हैं और हो सकता है वे शिल्‍प की दृष्टि से थोड़ा कम -ज्‍यादा हों लेकिन उनका महत्‍व कत्‍तई कम नहीं होता...।


मैं बिक गया हूँ



नहीं मान्यवर,
मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
मैं जब भी
आपके महान देश और संस्कृति पर
आरोप मढ़ता हूँ,
ग़लत होता हूँ,

नहीं....
इस पवित्र देश में
कभी फ़साद नहीं होते,
यहाँ अपराध हैं ही नहीं
तो किसी जेल में ज़ल्लाद नहीं होते,
जो लड़की रोती है टी.वी. पर
कि उसकी चार बहनों पर
बलात्कार हुआ दंगे में,
वो मेरी तरह झूठी है,
उसकी बहनें बदचलन रही होंगी
या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,
और जो रिटायर्ड मास्टर
पेंशन के लिए
सालों तक दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद
भरे बाज़ार में जल जाता है,
उसकी मौत के लिए
कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,
आपका ‘चुस्त’ सिस्टम नहीं,

नहीं मान्यवर,
यह झूठ है
कि एक पवित्र किताब में लिखा है-
विधर्मी को मारना ही धर्म है
और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से
आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,

नहीं मान्यवर,
यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है
कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
और पचासों बाबाओं के यहाँ
हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,

यह वह देश नहीं है,
जहाँ बार-बार
धर्म-पंथ के नाम पर
कृपाण उठाकर अलग देश माँगा जाता है,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ समाजसेवा के वर्क में लिपटी हुई
चार रुपए की बरफी खिलाकर
आदिवासी बच्चों से
'राम' की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,

नहीं मान्यवर,
उस बेकरी वाली की बहनों का नहीं,
बलात्कार तो मेरे दिमाग का हुआ है,
जो मैं कुछ भी बके जाता हूँ,
मुझे जाने किसने खरीद लिया है
कि मैं इस महान धरती के
आप महान उद्धारकों को
नपुंसक कहे जाता हूँ,
आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?
जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,
वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?

मान्यवर,
मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।

5 comments:

उम्मतें said...

शिल्प का रोना अपनी जगह ! सवाल ये है की क्या कविता विचार के साथ न्याय कर पाती है ? हमारा ख्याल है...हाँ !

Dr. Amar Jyoti said...

जब कथ्य पर उंगली उठाने से उंगली जलने का ख़तरा हो तो हमला शिल्प पर ही तो होगा।
धूमिल के तेवरों की याद दिलाती एक शानदार कविता।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

आईना दिखाती कविता...
यही मुख्य बात है...

Unknown said...

is kavita ki aakramakta ne dil choo liys swagat h

Fauziya Reyaz said...

ye kavita nahi...zor daar vaar hai...magar jin par vaar kiya ja raha hai unhe kuch mehsoos nahi hota...unke dil o dimag jism sab sunn hai