संस्कृति के रक्षकों कहो- किसकी रोटी में किसका लहू है?

विप्‍लव राही
भारतीय संस्कृति अक्सर खतरे में पड़ जाती है। और फिर उसे बचाने के लिए बहुत से लोग कमर कसने लगते हैं। लेकिन संस्कृति है कि फिर से खतरे में पड़ जाती है….अपनी इस महान संस्कृति को कभी सविता भाभी खतरे में डाल देती हैं, तो कभी सच का सामना इसे तार-तार करने पर उतारू हो जाता है। कभी सहमत की प्रदर्शनी इसकी दुश्मन बन जाती है, तो कभी मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग इस पर कालिख पोतने लगती है। भारतीय संस्कृति के रक्षकों को बड़ा गुस्सा आता है। वो सबकुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन संस्कृति पर हमला? इसे तो हरगिज़ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सबका गुस्सा देख कई बार मुझे भी लगता है, इतने समझदार लोग गुस्सा कर रहे हैं, ज़रूर कोई वाज़िब बात होगी। आखिर हम भारतवासी हैं, भारतीय संस्कृति पर हमला कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? सोचता हूं मुझे भी संस्कृति की रक्षा में जुटे लोगों का साथ देना चाहिए। 

भारतीय संस्कृति की रक्षा का फैसला कर तो लिया, लेकिन इस पर अमल कैसे करूं समझ नहीं आ रहा। आखिर जिसकी रक्षा करनी है, उसका अता-पता, उसकी पहचान तो मालूम होनी चाहिए। दिक्कत यहीं है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि आखिर ये भारतीय संस्कृति है क्या चीज़? एक बार संघ प्रशिक्षित एक वीएचपी नेता ने मुझे समझाया था कि हिंदू – मुसलमान एक मुल्क में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उनकी दलील थी – दोनों की संस्कृति अलग है। हिंदू पूरब की ओर मुंह करके पूजा करता है, मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके। हिंदू हाथ धोते हुए कोहनी से हथेली की ओर पानी डालता है, मुसलमान वज़ू करते हुए पहले हथेली में पानी लेता है, फिर कोहनी तक ले जाता है। हिंदू का तवा बीच में गहरा होता है, मुसलमान का बीच में उठा हुआ होता है…कितनी अलग है दोनों की संस्कृति…कैसे रह सकते हैं साथ-साथ? आशय ये था कि हिंदू-मुसलमान की राष्ट्रीयता अलग-अलग है।
मुझे उनकी बातें सुनकर लगा मुहम्मद अली जिन्ना की टू-नेशन थियरी सुन रहा हूं। इस ‘ज्ञान’ के जवाब में मैंने पूछा, पंजाब का हिंदू भी ज़्यादातर रोटी खाता है और मुसलमान भी। बंगाल में हिंदू हों या मुसलमान सब भात खाते हैं। केरल के हिंदू का रहन-सहन कश्मीरी पंडित से मेल नहीं खाता। गुजराती हिंदू के रीति-रिवाज़ बिहार के हिंदू से अलग हैं। फिर बात हिंदू-मुसलमान की कैसे हुई? उसके पास जवाब नहीं था।
खैर, वो बहस तो खत्म हो गयी, लेकिन संस्कृति का सवाल अब भी वहीं अटका रहा। क्या धार्मिक रीति-रिवाज़ों, खान-पान, रहन-सहन जैसी बातें संस्कृति हैं? किसी ने बताया कि संस्कृति इससे ज़्यादा गहरी, इससे ज़्यादा सूक्ष्म चीज़ है। वो सभ्यता से एक कदम आगे की बात है। एक परिभाषा कहती है कि सभ्यता का मतलब है समाज के भौतिक जीवन से जुड़ी विशेषताएं जबकि संस्कृति का लेना-देना मन, बुद्धि और आत्मा के विकास से है। संस्कृति यानी सम्यक् कृति। संस्कृति यानी वो सारी बातें जो हमें संस्कारित करती हैं।
बात कुछ और उलझ गयी है। कुछ समझ नहीं आ रहा कि ये संस्कृति आखिर है क्या चीज़? कोई कहता है कि भारत की संस्कृति एक “सामासिक संस्कृति” है…मतलब मिल-जुलकर रहने का संस्कार, सबको अपना बना लेने की आदत। बात अच्छी है। लेकिन सवाल फिर सिर उठा रहा है…अगर ऐसा है तो हमारे समाज़ में दलित, अछूत क्यों रहे हैं? सबको अपनाने वाली संस्कृति में भगवान का दरवाज़ा भी जाति देखकर क्यों खुलता-बंद होता रहा है? अगला सवाल इसी से जन्म लेता है। भारतीय संस्कृति यानि ब्राह्मण की संस्कृति या दलित की संस्कृति? क्या है हमारी संस्कृति?
कोई कहता है कि शील-संकोच और शालीनता हमारी संस्कृति की खासियत है। नग्नता हमें बर्दाश्त नहीं। सच का सामना देखकर बौखलाने वालों के लिए खासतौर पर ये सबसे अहम बात होगी शायद। लेकिन इस खासियत को भी स्वीकार करना आसान नहीं है। क्या आपने पूर्वांचल या बिहार के गांवों में होने वाली शादियां देखी हैं? कोहबर की दीवारों पर क्या चित्र बने होते हैं? शादी के दौरान जो “गारी” गायी जाती है, वो सुनी है? एक से बढ़कर एक गालियां होती हैं, सेक्स से जुड़े ऐसे शब्दों से भरी जिन्हें अश्लील या अपशब्द माना जाता है। और इन्हें घर के भीतर, पूरे परिवार की मौजूदगी में परिवार और पास-पड़ोस की महिलाएं गाती हैं।
होली में कभी बनारस गए हैं? अस्सी का कवि सम्मेलन सुना है? होली पर चंदा मांगने वाले लड़कों का झुंड देखा है? क्या होता है उनके हाथ में? जिन्हें नहीं मालूम उन्हें बता दूं – कपड़े में भूसा भरकर बनाया गया विशालकाय लिंग..कई बार तो पंद्रह-बीस फुट लंबा.. जिसके शीर्ष पर अबीर-गुलाल पोतकर, माला पहनाकर लड़के घुमाते रहते हैं। शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों और सड़कों पर सरेआम..सारी जनता के बीच। इस पर भी कोई हल्ला नहीं मचता। जितने अपशब्द, जितनी गालियां हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में होंगी, मुझे नहीं लगता किसी और देश में होंगी। नगा साधुओं और दिगंबर जैन संप्रदाय के मुनियों के जुलूस यहां सरेआम निकलते हैं। पूरी तरह निर्वस्त्र बाबाओं की चरण रज महिलाएं भी लेती हैं। कोणार्क और खजुराहो की काम-क्रीड़ारत मूर्तियों की बात तो बार-बार होती ही रहती है। ये सारी चीजें किस संस्कृति का हिस्सा हैं?
भारत के प्राचीन ग्रंथों में एक पत्नीव्रत का पालन करने वाले राम की कहानी है, तो कृष्ण की सोलह हज़ार रानियों की भी। सीता और सावित्री हैं, तो द्रौपदी और रंभा-ऊर्वशी भी। आचार्य चतुरसेन का वयम् रक्षाम: पढ़ें तो पता चलेगा कि भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा रक्ष संस्कृति भी रही है, जिसमें स्त्री को भी अपने काम संबंधी आचरण में उतनी ही स्वतंत्रता-स्वछंदता प्राप्त थी, जितनी किसी भी पुरुष को।
एक खासियत ये भी बताई जाती है कि हमारी संस्कृति बड़े-बुजुर्गों का आदर करना सिखाती है। यहां, गांव का एक दृश्य सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। सत्तर बरस के बुजुर्ग बारह साल के एक बच्चे से कह रहे हैं बाबाजी गोड़ लागतानी…बच्चा कहता है खुस रह..। किसी बड़े आदमी के आंगन में सब चौकी या कुर्सी पर बैठे होते हैं और दलित बुजुर्ग नीचे ज़मीन पर उकड़ूं बैठता है। कहां गया बड़े-बुजुर्गों का आदर? सवाल जस का तस है..क्या है भारतीय संस्कृति?
एक दावा ये है कि हमारी संस्कृति नारी का सम्मान करती है। क्या वैसे ही जैसे राम ने बार-बार अग्निपरीक्षा लेकर सीता का किया था? या जैसे सती प्रथा के बहाने मार दी जाने वाली महिलाओं का किया जाता है, उनके नाम पर सती माई का चौरा बनाकर? या जो विधवाएं ज़िंदा रह गयीं, उनके सारे मानवीय अधिकार छीनकर हम करते रहे हैं महिलाओं का सम्मान? या फिर शिक्षा और संपत्ति जैसे अधिकारों से वंचित करके या शादी में किसी वस्तु की तरह उसका दान करके? कैसे करते हैं हम महिलाओं का सम्मान? प्रजनन के लिए अनिवार्य शारीरिक अवस्था के दौरान उसे अस्पृश्य बनाकर या भ्रूण हत्याएं करके? ये तो वो भारतीय संस्कृति नहीं हो सकती, जिसकी रक्षा के लिए हमारी भुजाएं फड़कने लगती हैं।
कहा ये भी जाता है कि भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक उन्नति को भौतिक विकास से ज़्यादा अहमियत दी जाती है। यहां तो कई सवाल हैं। अगर ये सच है, तो आध्यात्मिक विकास से जुड़ी जगहों पर धन-दौलत का फूहड़ प्रदर्शन क्यों होता है? ज़्यादातर आध्यामिक गुरु और मठ-मंदिर सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात से लदे-फंदे क्यों रहते हैं? मठों – मंदिरों और शंकराचार्य जैसी पदवियों पर कब्जे के लिए लड़ाइयां क्यों होती हैं? सवाल ये भी है कि किसकी आध्यामिक उन्नति पर जोर देती है हमारी संस्कृति? ज्ञान की पुस्तकों के अध्ययन, मनन, चिंतन का अधिकार भी जहां सबको नहीं दिया गया, वहां हम किस मुंह से खुद को आध्यामिक विकास की संस्कृति का वाहक घोषित करते हैं? शंबूक वध की कथा क्या किसी विदेशी चैनल से आयी थी?
धूमिल ने लिखा था, लोहे का स्वाद लोहार से नहीं, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है…मुझे लगता है भारतीय संस्कृति का असली अर्थ समझने के लिए हमें उन ग़रीब मज़दूरों-किसानों के पास जाना होगा, जो अपनी ज़मीन को बचाने के लिए जान पर खेल रहे हैं या खुदकुशी की मज़बूरी से लड़ रहे हैं। उन दलितों के पास जाना होगा, जो आज भी सवर्णों के कुओं से पानी लेने पर दंडित होते हैं। उन अजन्मी बेटियों की चीत्कार सुननी होगी, जो अपनों के हाथों हर रोज़ मारी जाती हैं। उन बच्चों की आंखों में झांकना होगा, जो रेलवे स्टेशनों और चौराहों पर खड़े आलीशान कारों में बैठे लोगों को सूनी निगाहों से टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं। वही हमें बताएंगे कि क्या है भारतीय संस्कृति और कौन हैं उसके सच्चे पहरेदार! किसकी रोटी का आटा, किसके पसीने से गूंदा गया है और उस पर चुपड़ा घी किसके संस्कारों की आंच पर पका है! भारतीय संस्कृति को समझने की कोशिश में फिलहाल मैं तो इतना ही बूझ सका हूं। आप अगर इस मूरख को कुछ समझा सकें, तो बड़ी मेहरबानी!

8 comments:

उम्मतें said...

अभी आते ही होंगे उनमें से कुछ आपको संस्कृति का पाठ पढ़ाने ! ऐसा लेख ,ऐसा नज़रिया ...यकीन जानिये अब मैं आपके लिए चिंतित हो गया हूँ ! ज़रा हेलमेट पहन कर निकला कीजिये !
संदीप भाई आप कहाँ गुम हो जाते हैं विप्लव का लेख पढवाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार !

Vinashaay sharma said...

बहुत अच्छा वयंग ।

संदीप said...

हा हा, अली भाई चिंता मत कीजिए, वैसे हेलमेट पहन लूंगा तो कोई तरीका ढूंढ़ लेंगे नुकसान पहुंचाने का....बुढ़ापे में हरिशंकर परसाई जी को भी इन लोगों ने नहीं बख्‍शा तो मैं किस खेत की मूली हूं।
इस बीच कुछ व्‍यस्‍तता थी, कोशिश रहेगी कि अब लगातार ब्‍लॉग पर कुछ पोस्‍ट करता रहूं..

रवि कुमार, रावतभाटा said...

देर आयद...
और कितना दुरस्त आयद...

अच्छे मंथन को प्रस्तुत करता आलेख...

Dr. Amar Jyoti said...

भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरपूर देश में फौजी वर्दी जैसी किसी एक सर्वव्यापी संस्कृति सब पर थोपने की जिद फ़ासिस्टों के अलावा और कौन करेगा? बहुत अच्छा आलेख।

उम्मतें said...

@ डाक्टर अमर ज्योति
विशेषकर तब जब कि उस यूनिफार्म ( आपने कहा फौजी वर्दी ) के कई हिस्से विदेशी हों :)

Amrit said...

बहुत ही तर्क भरभूर लेख.. शायद फाशीवादी इस को समझें पर सम्भावना बहुत कम है क्योंकि जिस दिन वो समझना शुरू कर देंगे उसी दिन से वो फाशीवादी नहीं रहेंगे..
till then, they will continue to howl around with all rabidity they can have...these are Indian Goebbels, every logical talk will fall on their deaf ears.. this is what they can do... vaccination with communism is only sure shot treatment of fascist rabies, they too know this... their mouth will be shut tight by the working class and other oppressed people of my country..

shameem said...

fasizm ka nya rag
jankar accha laga