इसाई मिशनरी हों, या हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी; ये राहत के नाम पर धर्म परिवर्तन, धर्म का पालन करने को बाध्य करने से लेकर तरह तरह की पुनरुत्थानादी, दकियानूसी हरकतें करते हैं। ताज़ा खबरें गुजरात में चल रहे मुस्लिम राहत शिविरों के बारे में आ रही हैं। इन शिविरों में सहायता प्रदान करने वाली मुस्लिम धर्मार्थ संस्थाएं अब शिविरवासियों को धार्मिक पाखंड मानने और व्यवहार में उतारने के लिए बाध्य करना चाहती हैं, ऐसा न करने पर सहायता रोकने की धमकी दे रही हैं। इस पूरे मसले पर जाने-माने सांप्रदायिकता विरोधी एक्टिविस्ट और मुंबई आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी के लेख को हम यहां दे रहे हैं। - मॉडरेटर
इस्लाम के नाम पर
राम पुनियानी
गुजरात में दंगा-पीड़ित मुसलमानों के लिए राहत शिविर चला रहीं इंग्लैंड की मुस्लिम परोपकारी संस्थाओं ने हाल में राहत शिविरों व कालोनियों में रह रहे मुसलमानों को चेतावनी दी है कि यदि उन्होंने ''इस्लामिक आचार संहिता'' का पालन नहीं किया तो उनको मिल रही सहायता बंद कर दी जायेगी. इस ''आचार संहिता'' के अनुसार शिविर में रहने वाले मुसलमान न तो टीवी देखेंगे और न संगीत सुनेंगे, उनके बच्चों की शिक्षा केवल मदरसो में होगी, पुरुषों को एक विशेष तरह की टोपी लगानी होगी और महिलाओं को हिजाब पहनना होगा. पुरुषों को दाढ़ी रखना भी जरूरी होगा.
इसके साथ ही, ''तबलीगी जमात'' ने भी इन मुसलमानों को ''इस्लाम के अनुरूप'' व्यवहार करने की हिदायत दी और इस हिदायत का पालन न करने वालो को गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा. इन राहत शिविरों में रह रहे मुसलमान पहले से ही बहुत बदहाल जिंदगी बिता रहे हैं. उन्हें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिल रही है और वे सामाजिक बहिष्कार के भी शिकार हैं. राहत शिविरों में रह रहे कुछ लोगों ने स्थानीय मौलानाओं के जरिए आने वाले इन निर्देशों का विरोध भी किया परंतु उन्हें मार-पीट कर चुप करा दिया गया. समाज, वहां रह रहे मुसलमानों को उन भौतिक और भावनात्मक दीवारों को ढ़हाने नहीं दे रहा है, जिन्हें सरकार और समाज ने उनके चारों ओर बना दिया है.
मौलाना उन्हें स्वतंत्रता से जीने नहीं दे रहे है. दकियानूसी तत्व न तो उन्हें आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने दे रहे हैं और न ही नौकरियॉ. उन्हें समय के साथ चलने नहीं दिया जा रहा हैं.
गोधरा ट्रेन आगजनी के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में-जो कि असल में गोधरा का बदला लेने के नाम पर राज्य प्रायोजित कत्लेआम था- बड़ी संख्या में मुसलमान मारे गए थे. राज्य सरकार ने आधे-अधूरे मन से राहत शिविर स्थापित करने के अपने कर्तव्य को निभाया. पीड़ितों के आंसू सूखे भी नहीं थे कि सरकार ने राहत शिविर बंद कर दिए.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना था कि ''बच्चे पैदा करने वाली इन फैक्ट्रियों'' को चालू रखने की कोई जरूरत नहीं है. पत्थरदिल राज्य प्रशासन के पीछे हट जाने के बाद, कुछ परोपकारी संस्थाओं ने पीड़ितों की मदद करने के लिए अपने काम के दायरे को बढ़ाया. उनके प्रति समाज के शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण के चलते असहाय मुसलमानों को मस्जिदों में शरण लेनी पड़ी. मस्जिदों ने उन्हें शरण तो दी परंतु साथ ही उन पर तथाकथित इस्लामिक जीवन शैली भी लाद दी. गुजरात के मुसलमान इस जीवन शैली के आदी नहीं थे.
राज्य सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा न तो समुचित था और न ही संबंधित प्रावधानों के अनुरूप था. नतीजतन, पुनर्वास का पूरा काम कट्टरवादी मुस्लिम धर्मार्थ संस्थाओं के नियंत्रण में आ गया और उन्होंने शरणार्थियों पर दकियानूसी नियम लादने शुरू कर दिए.
इन कालोनियों को एक नज़र देखने से ही इनके निर्माताओं की मानसिकता समझ में आ जाती है. इन कालोनियों में मकान बहुत छोटे हैं व मस्जिदें बहुत विशाल हैं. इन समुदायों में मौलानाओं का गहरा प्रभाव है और ईश्वर के इन सौतेले पुत्रों की शिक्षा के लिए केवल मदरसे उपलब्ध है.
गुजरात में सन् 2002 की हिंसा के पहले, वहॉ का मुस्लिम समुदाय व्यापार-व्यवसाय, आधुनिक शिक्षा आदि की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा था. दंगों के कारण मुसलमानों में घर कर गए असुरक्षा के भाव ने इस प्रक्रिया को न केवल रोक दिया है बल्कि उसकी दिशा भी पलट दी है.
मुसलमानों की बदहाली को प्रशासन व समाज द्वारा नजरअंदाज किए जाने से हालात और खराब हुए हैं. गुजरात के अल्पसंख्यक एक अजीब से भँवर में फॅस गए हैं. एक ओर योजनाबद्ध कत्लेआम ने उनमें असुरक्षा व असहायता का भाव भर दिया है तो दूसरी ओर दक्षिणपंथी राजनीति से नियंत्रित राज्य ने अपनी सभी कानूनी सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारियों से किनारा कर, मुसलमानों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.
मुसलमानों को दकियानूसी, परंपरावादी, कट्टर आदि न जाने क्या-क्या कहा जाता है परंतु कोई इस बात पर विचार नहीं करता कि वे आखिर ऐसा क्यों हैं. गुजरात में आज मुसलमान जिस दौर से गुज़र रहे हैं, कमोबेश वही हालात देश के अन्य उन मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में भी है, जहाँ सांप्रदायिक हिंसा हुई है.
यह सर्वज्ञात है कि दंगों में मुसलमान ज्यादा मारे जाते हैं. जहाँ देश की आबादी में उनका प्रतिशत 13.4 है, वहीं दंगों में जान गँवाने वालों में 80 प्रतिशत मुसलामान होते हैं. इसके कारण उत्पन्न हुई असुरक्षा की भावना ही मुस्लिम समुदाय की परंपरावादिता की जड़ में है.
हम यह भी जानते हैं कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं हैं. उसमें अनेक विभिन्नताएं और विविधताएं हैं. सन् 1990 तक, बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़के और लड़कियॉ आधुनिक पेशों को अपना रहे थे. वे शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार आदि बन रहे थे. सन् 1992-1993 के मुंबई दंगों ने मुसलमानों को गहरा आघात पहुंचाया. उनकी आर्थिक हालत में गिरावट आई और वे असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हो गए.
मुंबई हिंसा से मुस्लिम समुदाय धीरे-धीरे उबर ही रहा था कि गुजरात हो गया. इस सबका नतीजा यह हुआ है कि मुसलमान एक कुचक्र में फंस गए हैं. असुरक्षा की भावना के कारण वे अपने में सिमटते जा रहे हैं और उनके मुख्यधारा से कटने को उनको कटघरे में खड़े करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. एक ओर यह दुष्प्रचार किया जाता है कि मदरसों से आतंकवादी पढ़ कर निकल रहे हैं तो दूसरी ओर मुस्लिम बच्चों के लिए मदरसों में पढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा जा रहा है. मदरसों को आतंकवाद से जोड़ने का कोई आधार नहीं है. केवल अमरीका की सी.आई.ए. द्वारा पाकिस्तान में स्थापित किए गए मदरसे इसका अपवाद थे. इन मदरसों में अफगानिस्तान पर काबिज रूसी सेना से लड़ने के लिए लड़ाके तैयार किए जाते थे.
जहाँ तक भारतीय मदरसों का प्रश्न है, पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि वे केवल कुरान पढ़ा रहे हैं, आतंकवाद नहीं.
अधिकांश भारतीय मुसलमानों की हालत आज वैसी ही है, जैसी कि प्राचीन भारत में शूद्रों की थी. समाज उनके साथ गुलामों सा व्यवहार करता था और गुलामी को ही उनका धर्म-शूद्र धर्म-कहा जाता था. शूद्र भी अलग-थलग रहने के लिए मजबूर किए जाते थे. दूसरा उदाहरण अफ्रीकी-अमरीकियों का है, जिन पर श्वेत अमरीकी घोर अत्याचार करते थे. उन्हें उनके लिए निर्धारित बस्तियों में रहना पड़ता था. उन्हें न तो सम्मान प्राप्त था और न ही कोई नागरिक अधिकार.
पिछले तीन दशकों में भारत में तेजी से उभरी दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतें भी राज्य तंत्र और सामाजिक सोच में घुसपैठ बना कर ऐसा ही कुछ कर रहीं हैं. वे समाज पर पुरातन मूल्य लाद रहीं हैं और दूसरे दर्जे के नागरिकों की ऐसी श्रेणी तैयार कर रहीं हैं जो कि श्रेष्ठी वर्ग की दया पर जिन्दा रहे. ऐसी स्थिति को जितनी जल्दी बदला जा सकता है, बदलना चाहिए.
इन कालोनियों को एक नज़र देखने से ही इनके निर्माताओं की मानसिकता समझ में आ जाती है. इन कालोनियों में मकान बहुत छोटे हैं व मस्जिदें बहुत विशाल हैं. इन समुदायों में मौलानाओं का गहरा प्रभाव है और ईश्वर के इन सौतेले पुत्रों की शिक्षा के लिए केवल मदरसे उपलब्ध है.
गुजरात में सन् 2002 की हिंसा के पहले, वहॉ का मुस्लिम समुदाय व्यापार-व्यवसाय, आधुनिक शिक्षा आदि की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा था. दंगों के कारण मुसलमानों में घर कर गए असुरक्षा के भाव ने इस प्रक्रिया को न केवल रोक दिया है बल्कि उसकी दिशा भी पलट दी है.
मुसलमानों की बदहाली को प्रशासन व समाज द्वारा नजरअंदाज किए जाने से हालात और खराब हुए हैं. गुजरात के अल्पसंख्यक एक अजीब से भँवर में फॅस गए हैं. एक ओर योजनाबद्ध कत्लेआम ने उनमें असुरक्षा व असहायता का भाव भर दिया है तो दूसरी ओर दक्षिणपंथी राजनीति से नियंत्रित राज्य ने अपनी सभी कानूनी सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारियों से किनारा कर, मुसलमानों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.
मुसलमानों को दकियानूसी, परंपरावादी, कट्टर आदि न जाने क्या-क्या कहा जाता है परंतु कोई इस बात पर विचार नहीं करता कि वे आखिर ऐसा क्यों हैं. गुजरात में आज मुसलमान जिस दौर से गुज़र रहे हैं, कमोबेश वही हालात देश के अन्य उन मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में भी है, जहाँ सांप्रदायिक हिंसा हुई है.
यह सर्वज्ञात है कि दंगों में मुसलमान ज्यादा मारे जाते हैं. जहाँ देश की आबादी में उनका प्रतिशत 13.4 है, वहीं दंगों में जान गँवाने वालों में 80 प्रतिशत मुसलामान होते हैं. इसके कारण उत्पन्न हुई असुरक्षा की भावना ही मुस्लिम समुदाय की परंपरावादिता की जड़ में है.
हम यह भी जानते हैं कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं हैं. उसमें अनेक विभिन्नताएं और विविधताएं हैं. सन् 1990 तक, बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़के और लड़कियॉ आधुनिक पेशों को अपना रहे थे. वे शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार आदि बन रहे थे. सन् 1992-1993 के मुंबई दंगों ने मुसलमानों को गहरा आघात पहुंचाया. उनकी आर्थिक हालत में गिरावट आई और वे असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हो गए.
मुंबई हिंसा से मुस्लिम समुदाय धीरे-धीरे उबर ही रहा था कि गुजरात हो गया. इस सबका नतीजा यह हुआ है कि मुसलमान एक कुचक्र में फंस गए हैं. असुरक्षा की भावना के कारण वे अपने में सिमटते जा रहे हैं और उनके मुख्यधारा से कटने को उनको कटघरे में खड़े करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. एक ओर यह दुष्प्रचार किया जाता है कि मदरसों से आतंकवादी पढ़ कर निकल रहे हैं तो दूसरी ओर मुस्लिम बच्चों के लिए मदरसों में पढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा जा रहा है. मदरसों को आतंकवाद से जोड़ने का कोई आधार नहीं है. केवल अमरीका की सी.आई.ए. द्वारा पाकिस्तान में स्थापित किए गए मदरसे इसका अपवाद थे. इन मदरसों में अफगानिस्तान पर काबिज रूसी सेना से लड़ने के लिए लड़ाके तैयार किए जाते थे.
जहाँ तक भारतीय मदरसों का प्रश्न है, पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि वे केवल कुरान पढ़ा रहे हैं, आतंकवाद नहीं.
अधिकांश भारतीय मुसलमानों की हालत आज वैसी ही है, जैसी कि प्राचीन भारत में शूद्रों की थी. समाज उनके साथ गुलामों सा व्यवहार करता था और गुलामी को ही उनका धर्म-शूद्र धर्म-कहा जाता था. शूद्र भी अलग-थलग रहने के लिए मजबूर किए जाते थे. दूसरा उदाहरण अफ्रीकी-अमरीकियों का है, जिन पर श्वेत अमरीकी घोर अत्याचार करते थे. उन्हें उनके लिए निर्धारित बस्तियों में रहना पड़ता था. उन्हें न तो सम्मान प्राप्त था और न ही कोई नागरिक अधिकार.
पिछले तीन दशकों में भारत में तेजी से उभरी दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतें भी राज्य तंत्र और सामाजिक सोच में घुसपैठ बना कर ऐसा ही कुछ कर रहीं हैं. वे समाज पर पुरातन मूल्य लाद रहीं हैं और दूसरे दर्जे के नागरिकों की ऐसी श्रेणी तैयार कर रहीं हैं जो कि श्रेष्ठी वर्ग की दया पर जिन्दा रहे. ऐसी स्थिति को जितनी जल्दी बदला जा सकता है, बदलना चाहिए.
5 comments:
आपने लिखा असुरक्षा की भावना परंपरावादिता की जड़ में है. लेकिन आपको बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा. कश्मीर में पंडितों को भगाने के बाद अब वहां 99 प्रतिशत मुसलमान हैं. वहां क्यों परंपरावादिता है. इस्लामिक देशों में क्यों परंपरावादिता है. क्यों नहीं वहां कोई गांधी या कोई नेहरू पैदा होता है जो इस्लाम के अलावा भी किसी धर्मावलंबियों की बात करे.
क्यों इस्लाम के नाम पर दुनियाभर में आतंकवाद फैला है.
देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है तो हिंदू कहां जाएगा. प्रधानमंत्री के इस कथन का कोई मुसलमान विरोध क्यों नहीं करता है.
चालीस सालों तक मुसलमानों की पक्षधर सरकार के केंद्र में रहने के बावजूद मुसलमानों का विकास क्यों नहीं हुआ है.
क्या इस देश में धर्म के आधार पर नौकरी मिलनी चाहिए. अगर मुसलमानों को नौकरी देने की बात की जा रही है तो मुसलमान क्यों विरोध नहीं कर रहे हैं.
जब तक वो ऐसा नहीं करेंगे तब तक बहुसंख्यक हिंदुओं के दिल में उनके प्रति हमदर्दी कैसे जगेगी.
कश्मीर में आतंकवादी सैकड़ों मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं कोई आवाज उठाने वाला नहीं है, लेकिन वहां से सेना को भगाने के लिए तोड़-फोड़ सब कुछ हो रहा है. क्यों नहीं विरोध करते आप.
दिक्कत ये है की धर्माधारित राष्ट्रों के रूप में इस्लामिक देशों की विफलता से ना तो मुस्लिम दक्षिणपंथी कोई सबक लेने तैयार हैं और ना ही हिन्दू दक्षिणपंथी !
बड़ा ही मर्मस्पर्शी लेख है ... तथ्य सामने लाने के लिए लेखक को बधाई
आश्चर्य है की संस्कृतिक एकता की बात करने वाली आर एस एस देशवासियों की ऐसी दुर्दशा के बारे में क्या कहेगी .. कहेगी भी कैसे जब इसकी ज़िम्मेदारी उसी के सर पर है ...
इन भले मानुसो को यदि सरकार सहायता दे तो उचित होगा ...
हम सबकी भी ज़िम्मेदारी है की कुछ करे ...
rss ki tarah in logo ne bhi logon ke rahn sahan ka theka le rakha hai ye bhi unhi ki jamat je log hai
जो था उससे बेहतर कल के लिये ...अनंत शुभकामनायें !
Ali
(31-12-09)
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