हिंदुत्ववादी नेताओं ने फासीवाद, मुसोलिनी और इटली की तारीफ में 1924-34 के बीच 'केसरी' में ढेरों संपादकीय व लेख प्रकाशित किए। संघ के संस्थापकों में से एक मुंजे 1931 में मुसोलिनी से मिल कर आया था। और वहीं से लौट कर ''हिंदू समाज'' के सैन्यीकरण का खाका तैयार किया। इस संबंध में 'इकोनॉमिकल एंड पोलिटिकल वीकली' के जनवरी 2000 अंक में मारिया कासोलारी का शोधपरक लेख प्रकाशित किया गया था, जिसमें कासोलारी ने आर्काइव/दस्तावेजों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इस लेख में बताया गया है कि किस तरह सावरकर से लेकर गोलवलकर तक ने हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार की सराहना की थी। यह शोध हिंदुत्व बिग्रेड पर हिटलर-मुसोलिनी के स्पष्ट प्रभाव और विचारों से लेकर तौर-तरीकों घृणा फैलाने वाले प्रचार तंत्र तक में विदेशी फासिस्टों की नकल को तथ्यों सहित साबित करता है। आमतौर पर संघी संगठनों के प्रचार से भले ही यह समझा जाता है कि हिंदू महासभा और संघ करीबी नहीं रहे, विशेषकर सावरकर के समय में उन्होंने संबंद्ध विच्छेद कर दिया था; लेकिन कासोलारी ने तथ्यों-सबूतों के साथ प्रमाणित किया है कि वे कभी अलग नहीं हुए। और दोनों ही समय समय पर हिटलर द्वारा नस्लीय सफाए को जायज ठहराते रहे और भारत में भी उसी से प्रेरणा लेने की बात करते रहे।
मारिया कासोलारी के उस लेख का अनुवाद हमारे एक ब्लॉगर साथी कर रहे हैं। अनुवाद होते ही हम उसे पोस्ट के रूप में प्रकाशित करेंगे (फिलहाल अंग्रेजी में यह लेख नीचे दिया गया है)। हम ऐसी स्रोत सामग्रियों को प्रकाशित करने का प्रयास जारी रखेंगे, यदि आपके पास ऐसी कोई सामग्री हो तो हमें सूचित करें।
3 comments:
शत्रु का शत्रु = मित्र वाला समीकरन तो आपको पता होगा।
इसे नेताजी जानते थे; सावरकर जानते थे; रासबिहारी बोस जानते थे; और भारत के कम्युनिस्ट भी जानते हैं। कैसे?
हिटलर, सोवियत-संघौर कम्युनिज्म का का दुश्मन था; इसलिये भारत के कम्युनिस्टों के लिये भी दुश्मन हुआ।
यदि अमेरिका की तरह समय से फ्रांस, जर्मनी और जापान से सहायता ली गयी होती तो भार कम से कम दो दशक पहले आजाद हो गया होता और पाकिस्तान बनने की गुंजाइस भी नहीं आयी होती।
लेकिन इससे क्या? आप तो चीन द्वारा भारत को तोड़ने के विचार पर लिखने से भागने के लिये कुछ भौंकना चाहते थे, सो भोंक दिया।
स्वदेशी की बात कहने वाले लोग विदेशी मदद से आजादी की बात कह रहे हैं। भारत के लोग क्या नपुंसक हो गए थे जो देश में रहने वाले एक लाख बर्तानियों को भगाने के लिए फ्रासं, जर्मनी और जापान की मदद लेनी पड़ती। शायद यही विचार रहा हो जिसके कारण आजादी की लड़ाई से हिंदुवादी विचारों वाले लोगों ने दूरी बनाए रखी।
असली आजादी वही होती है और वही हो सकती है जो अवाम अपनी कुर्बानियों से हासिल करती है विदेशी मदद से मिलने वाली आजादी वास्तव में एक नई गुलामी की ही शुरुआत होती है।
पाकिस्तान और तालिबान का हौआ खत्म हुआ तो चीन के भारत को बांटने का नया शिगूफा छोड़ दिया गया। जैसे चीन की अपनी अन्दरूनी समस्याएं कोई कम हों। ऐसे मूर्खतापूर्ण विचारों को मीडिया में जगह मिल रही है तो यह भी एक बौद्धिक त्रासदी का संकेत है। चीन अगर साम्राज्यवादी आकांक्षाएं पाले हुए है तो अपनी कूव्वत भर भारत भी ऐसी आकांक्षाएं पाले हुए है।
वैसे महत्वपूर्ण बात यह नहीं है महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में ही ऐसे लोगों की बहुत बड़ी फौज पहले से मौजूद है जो धर्म जाति के नाम पर देश को बांटने के लिए अपना पूरा जोर लगाए हुए है। इसके लिए चीन या पाकिस्तान या अमेरिका, ब्रिटेन की जरूरत ही क्या है।
वैसे प्रश्न तो यह भी है कि हम एक हैं भी क्या।
हाँ इन उल्लेखों से संघ के पन्ने भरे पड़े हैं पर बहुत से दस्तावेज वे अब गायब कर रहे हैं या बदल रहे हैं. आज भी उनका आदर्श इजरायल, अमेरिका जैसे देश हैं
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