(1947 में हमारे दिलों पर एक लकीर—बल्कि चीरा—खींच दिया गया था। दुनिया की बड़ी ताकत और उनकी छोटे साझीदारी ताकतों द्वारा देश के आम अवाम को जर्बदस्ती हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नाम के दो मुल्क में बांट दिया गया था। उनके फायदे उनके लिए थे। लेकिन इंसानियत ने इस फायदे का खूनी नुकसान झेला। लाखों लोगों का विस्थापन और हजारों का कत्ल...। विभाजन आज भी धर्म के नाम पर खेले जाने वाले खेल की सिहरा देने वाली याद ताजा कर देता है। धर्म से ऊपर लोगों के आपसी रिश्तों के यूं टूट जाने को केदारनाथ सिंह की यह कविता बेहद भावप्रवण तरीके से उभारती है...। आइये याद करें 47 के उस मंजर को।)
सन 47 को याद करते हुए
— केदारनाथ सिंह
तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुंए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाजार से सुर्मा बेचकर
सबसे अखीर में लौटने वाले नूर मियां
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हें याद है शुरू से अखीर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़-घटाकर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गये थे नूर मियां
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?
4 comments:
इंसान को सरहदों में बांटने वाली सियासत के विरुद्ध सशक्त भावनापूर्ण कविता!
sandeep jee, waqai ye kavita bahut hee samvedansheel hai... lekin kaash ham insaan is bhaavnaaon ko samajh sake aur majhabo kee deewaar tod saken...
सन् सैंतालीस ...? नूर मियां ...? केदार... ?
तब मैं जन्मा भी नहीं था ! क्यों गए थे नूर मियां ?
मैं जिम्मेदार भी नहीं ! लेकिन ये तो तय है की उनका जाना घृणाजीवियों की गिज़ा और मेरे गले की फांस बन गया है !
सीधा सा।
सच्चा सा।
दिल में उतरता सवाल।
शायद हम सभी गणित में कमजोर हैं?
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