जानिए फासीवाद के कारणों और उससे लड़ने के तरीकों को - 2

बिगुल अखबार के ब्‍लॉग से फासीवाद संबंधी लेख को यहां हूबहू प्रस्‍तुत कर रहा हूं। इसमें फासीवाद के कारणों और आधार की तफसील से चर्चा की गई है। संभवत: यह लेख दो अंकों में आना है, इसलिए इस ब्‍लॉग पर फिलहाल इसका एक ही हिस्‍सा उपलब्‍ध है, उसी को यहां किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहा हूं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। विचारों में मतभेद जरूर दर्ज कर सकते हैं, लेकिन कुछ ''देशभक्‍त'' सिर्फ गाली-गलौज करना जानते हैं! इसलिए गाली-गलौज भरी उनकी टिप्‍पणियों को तुरंत डिलीट कर दिया जाएगा।


साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद

पूँजीवाद के इसी संकट ने मानवता को दो विश्वयुद्धों की ओर धकेला। 1870 के दशक के बाद से यूरोपीय देशों में पूँजीवाद भयंकर रूप से इस अति-उत्पादन के संकट का शिकार हो गया था। ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, पुर्तगाल, स्पेन जैसे कुछ देशों के पास 18वीं शताब्दी के समय से ही स्थापित उपनिवेश थे जिनके कारण वे मालों के अति-उत्पादन को अपने देश के बाहर अपने उपनिवेशों में भी बेच पा रहे थे। साथ ही, मालों के अतिरिक्त अब लागत को और घटाने के लिए सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए पूँजी को भी इन उपनिवेशों में निर्यात कर रहे थे, यानी, वहीं पर कारख़ाने लगाकर गुलाम देशों के सस्ते श्रम को निचोड़ रहे थे। जल्दी ही, यह सम्भावना भी निश्शेष हो गयी और 1910 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद फिर से अति-उत्पादन और मन्दी के संकट का शिकार हो गया। साथ ही, कई ऐसे यूरोपीय पूँजीवादी देशों की शक्ति का उदय हुआ जिनके पास उपनिवेश नहीं थे। ऐसे देशों में अगुआ था जर्मनी। इन देशों में पूँजीवाद के संकट के पैदा होने के साथ और इनकी आर्थिक और सैन्य ताकत के पैदा होने के साथ विश्व पैमाने पर ग़रीब देशों की पूँजीवादी लूट के फिर से बँटवारे का सवाल पैदा हो गया। इसी सवाल को हल करने के लिए पूँजीवादी देशों के शासक वर्ग ने पूरी दुनिया को पहले साम्राज्यवादी महायुद्ध में धकेल दिया। इसमें जर्मनी और उसके मित्र देशों को पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन इस युद्ध ने रूस की महान क्रान्ति के लिए भी उपजाऊ ज़मीन तैयार की। दरअसल, यही ज़मीन जर्मनी में भी तैयार हुई थी, लेकिन वहाँ के सामाजिक जनवाद की ऐतिहासिक ग़द्दारी और काउत्स्की के नेतृत्व में पूरी सामाजिक जनवादी पार्टी के साम्राज्यवादी पूँजीवाद की गोद में बैठ जाने के कारण वहाँ क्रान्ति नहीं हो सकी, हालाँकि जर्मनी का मज़दूर आन्दोलन रूस के मज़दूर आन्दोलन से अधिक शक्तिशाली और पुराना था। विश्वयुद्ध में जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी की पराजय के बाद के दौर में रूस में समाजवाद के तहत वहाँ के मज़दूर वर्ग ने अभूतपूर्व तरक्की करके पूरी दुनिया के सामने एक अद्वितीय मॉडल खड़ा कर दिया। दूसरी ओर, पहले विश्वयुद्ध में हथियार बेचकर और ऋण देकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने ज़बरदस्त मुनाफा कमाया। लेकिन एक दशक बीतते-बीतते संयुक्त राज्य अमेरिका में ही पूँजीवाद के अब तक के सबसे बड़े संकट का उदय हुआ जिसे महान मन्दी के नाम से जाना जाता है। यह 1929 से लेकर 1931 तक चली। इस मन्दी ने रूस को छोड़कर दुनिया के सभी देशों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। विशेष रूप से, अमेरिका और यूरोपीय देशों को। इस मन्दी के बाद ही जर्मनी और इटली में फासीवाद ने मज़बूती से पैर जमा लिये। महामन्दी ने जर्मनी और इटली में फासीवाद को कैसे पैदा और मज़बूत किया, अन्य देशों में फासीवाद पाँव क्यों नहीं जमा पाया, इन सवालों पर हम आगे विचार करेंगे। पहले, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संकट के इतिहास पर, कुछ शब्द और।

द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे कम नुकसान संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ और सबसे अधिक नुकसान सोवियत रूस को। पूरा यूरोप भी खण्डहर में तब्दील हो चुका था। अमेरिका ने यूरोप और जापान के पुनर्निर्माण के ज़रिये निवेश की सम्भावनाओं का उपयोग किया और अपनी मन्दी को कम-से-कम तीस वर्षों के लिए टाल दिया। 1950 से लेकर 1970 तक अमेरिकी पूँजीवाद ने ख़ूब मुनाफा पीटा। 1960 के दशक को तो अमेरिका में 'स्वर्ण युग' के नाम से जाना जाता है। अति-उत्पादन के संकट को दूर करने के लिए पूँजीवाद के दायरे के भीतर एक ही विकल्प होता है उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर विनाश ताकि उनके पुनर्निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर सम्भावनाएँ पैदा की जा सकें। यह विनाश समय-समय पर साम्राज्यवादी युद्धों के ज़रिये किया जाता है। 1970 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद एक बार फिर संकट का शिकार हुआ। इसके बाद वह उबरा ही था कि 1980 के दशक के मध्‍य में फिर से मन्दी ने उसे ग्रस लिया। इसके बाद भूमण्डलीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ विश्व साम्राज्यवाद ने एक नये चरण में प्रवेश किया। भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवाद ने मन्दी को दूर करने के लिए एक नयी रणनीति का उपयोग किया। वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के इस दौर में पूँजी की प्रचुरता और मन्दी के दोमुँहे संकट को दूर करने के लिए बैंकों के ज़रिये उपभोक्ताओं को ऋण देने की शुरुआत की गयी। मध्‍यम वर्ग तक के लोगों को माल ख़रीदने के लिए ऋण देने की प्रथा को विश्वभर में बड़े पैमाने पर शुरू किया गया। यानी पहले लोगों को ख़रीदने की ताकत से वंचित करके बाज़ार को मालों से पाट दिया गया और फिर जब ख़रीदार नहीं बचे तो ख़ुद ही सूद पर लोगों को पैसा देकर वह माल ख़रीदवाया गया, ताकि मन्दी को कुछ समय के लिए टाला जा सके। लेकिन जल्दी ही मध्‍यवर्ग के भीतर ऋण देकर माल ख़रीदवाने की सम्भावनाएँ समाप्त हो गयीं। इसके बाद, तमाम ऐसे लोगों को भी ऋण देने की शुरुआत की गयी जो उसका सूद चुकाने की क्षमता भी नहीं रखते थे, ताकि अस्थायी रूप से मन्दी का संकट दूर हो सके। जल्दी ही यह सम्भावना भी ख़त्म हो गयी और अब 2006 में शुरू हुई मन्दी के रूप में पूँजीवाद के सामने महामन्दी के बाद का सबसे बड़ा संकट खड़ा है, जिससे निपटने के लिए विश्व भर के पूँजीवादी महाप्रभु द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं।

संक्षेप में, पूँजीवाद अपने स्वभाव से ही संकट को समय-समय पर जन्म देता रहता है। संकट से निपटने के लिए युद्ध पैदा किये जाते हैं। लेकिन यह एक अस्थायी समाधान होता है और बेताल फिर से आकर पुरानी डाल पर ही लटक जाता है। साम्राज्यवाद के दौर में विश्व पूँजीवाद ने अपनी कार्यप्रणाली को बदला लेकिन सवा सौ साल बीतते-बीतते उसकी हवा निकल गयी और वह फिर से उसी असमाधेय संकट के सामने खड़ा है।

पूँजीवादी संकट की सम्भावित प्रतिक्रियाएँ

संकट के दौर में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है। संकट के दौर में अति-उत्पादन होने और उत्पादित सामग्री के बाज़ारों में बेकार पड़े रहने के कारण पूँजीपति का मुनाफा वापस नहीं आ पाता है और माल के रूप में बाज़ार में अटका रह जाता है। नतीजतन, पूँजीपति अधिक उत्पादन नहीं करना चाहता है और उत्पादन में कटौती करता है। इसके कारण वह उत्पादन में निवेश को घटाता है, कारख़ाने बन्द करता है, मज़दूरों को निकालता है। 2006 में शुरू हुई मन्दी के कारण अकेले अमेरिका में करीब 85 लाख लोग जून 2009 तक बेरोज़गार हो चुके हैं। भारत में मन्दी की शुरुआत के बाद करीब 1 करोड़ लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं। बेरोज़गारों की संख्या में पूरे विश्व में करोड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण न सिर्फ तीसरी दुनिया के ग़रीब पिछड़े पूँजीवादी देशों में बल्कि यूरोप के देशों में भी दंगे हो रहे हैं। यूनान, फ्रांस, इंग्लैण्ड, आइसलैण्ड, आदि देशों में पिछले दिनों हुए दंगे और आन्दोलन इसी मन्दी का असर हैं। इस मन्दी के कारण पैदा हुए जन-असन्तोष का पूरे विश्व के पूँजीवादी देशों में शासक वर्ग का जो जवाब सामने आया है उसमें कुछ भी नया नहीं है। यह जवाब है कल्याणकारी राज्य का कीन्सियाई नुस्खा। यह ''कल्याणकारी'' राज्य क्या करता है, इसे भी समझना ज़रूरी है।

मन्दी के कारण जो वर्ग सबसे पहले तबाह होते हैं, वे हैं मज़दूर वर्ग, ग़रीब और निम्न मध्‍यम किसान, खेतिहर मज़दूर वर्ग, शहरी निम्न मध्‍यम वर्ग और आम मध्‍यम वर्ग। यह कुल जनता का करीब 90 प्रतिशत होते हैं। इसके अतिरिक्त, छोटे व्यापारियों और दलालों का भी एक वर्ग इसमें तबाह होता है। इसके कारण पूरे समाज में ही 90 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के लिए एक भयंकर आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का माहौल पैदा होता है। इसके कारण भारी पैमाने पर व्यापक और सघन जन-असन्तोष पैदा होता है जो पूरी व्यवस्था के लिए ही एक ख़तरा साबित हो सकता है। इस ख़तरे से निपटने के लिए 1930 के दशक में पूँजीवाद के एक कुशल हकीम जॉन मेनॉर्ड कीन्स ने बताया कि अराजकतापूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था को थोड़ा-थोड़ा व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती है। अगर निजी प्रतिस्पर्द्धा वाले पूँजीवाद और इजारेदारियों को मुक्त बाज़ार में खुल्ला छोड़ दिया जायेगा तो पूँजी की अराजक गति आत्मघाती रूप से ऐसे हालात पैदा कर देगी जो पूँजीवाद को ही निगल जायेंगे। इसलिए थोड़ा संयम बरतने की ज़रूरत है। इस व्यवस्थापन के काम को पूँजीवाद राज्य को अंजाम देना होगा। इसे कुछ ऐसी नीतियों में निवेश करना होगा जो लोगों को थोड़ा सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का आभास कराये। मिसाल के तौर पर, सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) को खड़ा करके उसमें रोज़गार देना होगा; बीमा योजनाएँ लागू करनी होंगी; कुछ अवसंरचनागत क्षेत्र जैसे परिवहन, संचार, आदि को सरकार को अपने हाथ में रखना होगा; निजी क्षेत्र पर कुछ लगाम रखनी होगी; लोगों को आवास आदि की कुछ योजनाएँ देनी होंगी; मज़दूरों की मज़दूरी को थोड़ा बढ़ाना होगा, आदि। यानी कुछ सुधार के कदम जो कुछ समय के लिए लोगों के असन्तोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव कर सकें। ऐसे काम करने वाले राज्य को ही ''कल्याणकारी'' राज्य कहा जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह कल्याणकारी राज्य पूँजीवाद के दूरगामी कल्याण के लिए और जनता के मन में फौरी कल्याण का एक झूठा अहसास पैदा करने के लिए खड़ा किया जाता है।

लेकिन इस कल्याणकारी राज्य के साथ दिक्कत यह होती है कि इसके अपने ख़र्चे बहुत होते हैं। तमाम कल्याणकारी नीतियों को लागू करने के लिए सरकार को पूँजीपतियों के मुनाफे पर थोड़ी लगाम कसनी पड़ती है और मज़दूरों को थोड़ी रियायतें और छूट देनी पड़ती है। जिन देशों में पूँजीवाद सामन्तवाद विरोधी क्रान्तियों के ज़रिये आया और जहाँ पूँजीवाद विकास की एक गहरे तक पैठी हुई लम्बी प्रक्रिया सामने आयी, वहाँ पर पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से इस हालत में था कि कल्याणकारी राज्य के ''ख़र्चे उठा सके'' और राजनीतिक रूप से भी इतना चेतना-सम्पन्न था कि कल्याणकारी राज्य को कुछ समय तक चलने दे और कुछ इन्तज़ार के बाद, दोबारा ''छुट्टा साँड ब्राण्ड'' पूँजीवाद की शुरुआत करे।
जिन देशों में पूँजीवाद किसी क्रान्तिकारी बदलाव के ज़रिये नहीं, बल्कि एक क्रमश: प्रक्रिया में आया वहाँ कल्याणकारी राज्य के कुछ और ही नतीजे सामने आये। इन देशों में जर्मनी और इटली अग्रणी थे। जर्मनी का पूँजीवाद में संक्रमण किसी पूँजीवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं हुआ। वहाँ पर क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं लागू हुए, बल्कि सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील हो जाने का मौका दिया गया। औद्योगिक पूँजीपति वर्ग राज्य द्वारा दी गयी सहायता के बूते खड़ा हुआ, न कि एक लम्बे पूँजीवादी विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया से, जैसाकि इंग्लैण्ड और फ्रांस में हुआ था। यहाँ के पूँजीपति वर्ग, कुलकों और धनी किसानों की कल्याणकारी राज्य के नतीजों पर इंग्लैण्ड, अमेरिका, और फ्रांस के पूँजीपति वर्ग से बिल्कुल भिन्न प्रतिक्रिया रही। इन शासक वर्गों की अलग किस्म की प्रतिक्रिया ने जर्मनी और इटली में फासीवाद के उदय की ज़मीन तैयार की।
इसके अतिरिक्त, एक और कारक था जिसने फासीवाद के उभार में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। यह कारक था जर्मनी और इटली के सामाजिक जनवादी आन्दोलन की ग़द्दारी और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का पूँजीवाद की चौहद्दियों के भीतर ही घूमते रह जाना। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के नेतृत्व में जर्मनी में एक बहुत शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन था जिसने 1919 से लेकर 1931 तक राज्य से मज़दूरों के लिए बहुत से अधिकार हासिल किये। जर्मनी में मज़दूरों की मज़दूरी किसी भी यूरोपीय देश से अधिक थी। कुल राष्ट्रीय उत्पाद में मज़दूर वर्ग का हिस्सा यूरोप के किसी भी देश के मज़दूर वर्ग के हिस्से से अधिक था। लेकिन इससे आगे सामाजिक जनवाद और कोई बात नहीं करता था। वह इसी यथास्थिति को बरकरार रखना चाहता था और इसलिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को सुधारवादी संसदवाद और अर्थवाद की अन्‍धी चक्करदार गलियों में घुमाता रहा। लेकिन दूसरी तरफ जर्मनी का पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को मिली इन रियायतों और सुविधाओं को बर्दाश्त करने की ताकत खोता जा रहा था, क्योंकि इसके कारण पूँजी संचय की उसकी रफ्तार बेहद कम हो गयी थी, यहाँ तक कि ठहर गयी थी। इसके कारण विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा में उसका टिक पाना बेहद मुश्किल हो गया था।
1928 आते-आते जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद सबसे अधिक औद्योगिक उत्पादन वाला देश बन चुका था और उत्पादकता की रफ्तार भी अमेरिका के बाद सबसे अधिक थी। इसके साथ ही जर्मनी की विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा भी अधिक से अधिक तीखी होती जा रही थी। लेकिन घरेलू पैमाने पर मज़दूर वर्ग के शक्तिशाली सुधारवादी आन्दोलन के कारण उसके मुनाफे की दर लगातार कम होती जा रही थी, जिसे इतिहासकारों ने लाभ संकुचन (''प्रॉफिट स्क्वीज़'') का नाम दिया है। ठीक इसी समय, विश्वव्यापी महामन्दी का प्रभाव जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। लाभ संकुचन की मार से बिलबिलाये हुए जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए यह बहुत त्रासद था! इसके कारण सबसे पहले छोटा पूँजीपति वर्ग तबाह होना शुरू हुआ। बड़े पूँजीपति वर्ग को भी भारी हानि उठानी पड़ी। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ी। शहरी वेतनभोगी निम्न मध्‍यम वर्ग में भी बेकारी द्रुत गति से बढ़ने लगी। जो काम कर भी रहे थे उनके सिर पर हर समय छँटनी की तलवार लटक रही थी। इस पूरे असुरक्षा के माहौल ने निम्न पूँजीपति वर्ग, सरकारी वेतनभोगी मध्‍यवर्ग, दुकानदारों, शहरी बेरोज़गारों के एक हिस्से के भीतर प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार की। यही वह ज़मीन थी जिसे भुनाकर राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन मज़दूर पार्टी (हिटलर की नात्सी पार्टी) ने एक प्रतिक्रियावादी जन आन्दोलन खड़ा किया जिसकी अग्रिम कतारों में निम्न पूँजीपति वर्ग, वेतनभोगी मध्‍यम वर्ग, शहरी पढ़ा-लिखा मध्‍यम वर्ग, लम्पट सर्वहारा और यहाँ तक कि सर्वहारा वर्ग का भी एक हिस्सा खड़ा था।
इस असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

अगले अंक में हम देखेंगे कि जर्मनी में फासीवाद की विजय किस प्रकार हुई थी। जर्मनी के उदाहरण से हम फासीवाद के उदय के कारणों को और अधिक स्पष्टता से समझ पायेंगे और उसका सामान्यीकरण कर पायेंगे। उस सामान्यीकरण के नतीजों को फिर हम भारत पर लागू करके समझ सकते हैं कि भारत में फासीवाद की ज़मीन किस प्रकार मौजूद है और भारत में मौजूद फासीवादी उभार का मुकाबला यहाँ का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन किस प्रकार कर सकता है।


(आगे की पोस्‍टों में जारी)

4 comments:

Anonymous said...



अब तक कोई कॉमेंट नही आया देख कर इतनी तो तस्सल्ली हुई की अपने ब्लॉगगेर्स भाई
देश के दुश्मनो से भली भाँति परिचित है.......

जम के कोशिश कर लो इस देश के लोगों को गद्दारी का पाठ पढ़ाने की और जर्मनी , चीन का इतिहास पढ़ाने की वरना तुम्हे मिलने वाले विदेशी डॉलर्स कम हो जाएँगे..!!

मैं तो सोचता था की इस देश मे देशभक्तों की कोई कमी नही है पर ब्लॉग्स पर आने के बाद पता लगा की इस देश मे गद्डारों की भी कोई कमी नही है...

जो देश को गुलाम बनाए रखने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे है और अनपढ़ मजदूरों की सिधाई का नाजायज़ फायेदा उठना चाहते है....

भाई मैं चाहता हू की ईश्वर तुम्हे सद्बुधि दे ताकि हम सब
मिल कर इस देश का खोया हुआ अतीत वापस ला सकें....ना की इस देश की जनता को और बेवकूफ़ बनाए...

क्या तुम्हारे पास इस देश को विकसित रास्ट्र बनाने की कोई योजना है..??

अगर अपनी विचारधारा मे देश हित की बातों को शामिल करो तो शायद बाकी ब्लॉगगेर्स भी आपका साथ दे सकें....

एक बार प्रेम से बोलो "जय हिंद".


Kapil said...

आपके पास तो 1925 से देश को विकसित करने की योजना थी भाईसाहब। क्‍या बेड़ागर्क किया आज सामने हैं। 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोजाना पर जिन्‍दा हैं। आपका राष्‍ट्रवाद तिजोरी में पैदा होता है। लेकिन अब ज्‍यादा दिन लोग आपकी झांसापट्टी में नहीं रहेंगे। देखते जाइए आपकी जड़ों का इतिहास कोने-कोने में पहुंचा ही देंगे। आपकी घबराहट अभी से जाहिर होने लगी है।

sameer said...

प्रिय शाही जी , किसी आलेख के विचार पढना और उससे सहमत या असहमत होना पाठक का अधिकार है ! लेकिन किसी आलेख की अतार्किक और फूहड़ निंदा किसी भी रूप में उचित नहीं मानी जा सकती ! मैंने इस आलेख को पढ़ा था किन्तु टिप्पणी नहीं की ! तो क्या ये मान लूं मेरे जैसी ? टिप्पणी नहीं मिलने से ये आलेख घटिया साबित हो गया है ! प्रिय मित्र , टिप्पणियों की संख्या किसी भी आलेख की गुणवत्ता का प्रमाण नहीं हुआ करतीं ! बेहतर होता कि आप इस आलेख के जबाब में अपने विचार / अपने चिंतन से हमें भी अवगत कराते !

naveen prakash said...

शाही जी जैसे संघियों के बिच में मैं पला बढा हूँ. इनके राष्ट्र निर्माण का मतलब स्वंय के निर्माण से है. ये आज़ादी के पहले से ही राष्ट्र निर्माण के नाम पर अपना निर्माण करते आ रहे हैं. हिंदुस्तान में इनसे बड़ा कोई देशभक्त नहीं. बाकि सब लोग गद्दार हैं. इन्हें सडकों और गलियों में भूखे पेट घूमते लोग नज़र नहीं आते जिनकी आँखे इन जैसे रईसों की ठाट-बाट देखते-देखते पथरा गयी हैं. इन्हें इन्ही की फैक्ट्रियों में ख़राब परिस्थितियों में काम करने वाले लोग नज़र नहीं आते. इन्हें इलाज के लिए दर-दर भटक रहे लोग नज़र नहीं आते. इन्हें आत्महत्या को मजबूर किसान और नौजवान बेरोजगार नज़र नहीं आते. इन्हें तो बस हिन्दू राष्ट्र नजर आता है. इनके पास सौ बिमारियों का एक ही देशी इलाज है - हिन्दू. हिन्दू और राष्ट्र निर्माण की बात करो और लोगो को उल्लू बनाओ. और जो लोग इनकी पोल खोले, लोगो को शिक्षित करे उन्हें देशद्रोही बता दो.

खैर आपके द्वारा प्रस्तुत लेख काफी लाभप्रद है और जनता की राजनितिक शिक्षा के लिए उपयोगी भी.