सन 1947 में भारत आज़ाद हो गया था और उसके बाद धर्मनिरपेक्षता को हमारे संविधान के एक अंग के रूप में अपनाया गया। लेकिन आज भी हमारे देश में भाषाई, जातीय, और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। व्यक्तिगत रूप से मैं किसी ईश्वर या धर्म को नहीं मानता लेकिन यह जरूरत मानता हूं कि किसी धर्म को मानना या न मानना किसी की भी व्यक्तिगत आजादी है और उसका लोकतांत्रिक अधिकार है। ऐसे मैं दिल्ली के रोहिणी सेक्टर - 16 इलाके में, दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा मस्जिद बनाने के लिए दी गई जमीन को लेकर कट्टरपंथी हिंदू, या कहें कि संघ गिरोह की गुण्डा वाहिनी, जिस तरह की घटिया राजनीतिक कर रही है, वह धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की पूरी अवधारणा पर प्रश्न चिह्न लगाता है।
कल यहां मस्जिद की जमीन पर जुम्मे की नमाज अदा करने गए मुसलमानों को हिंदू धर्म के तथाकथित रक्षकों ने मारा-पीटा और सुनने में आ रहा है कि दो युवाओं सहित एक बच्चे का सिर भी फोड़ दिया और एक बुजुर्ग की गर्दन पर चाकू तक मारा गया है, जिसकी एमएलसी भी कराई गयी है। मस्जिद की सुरक्षा के लिए खासा पुलिस बल है, लेकिन उनसे दस कदम की दूरी पर यह सब होता रहा और पुलिस को पता तक नहीं चला। कुछ लोगों ने यहां तक आरोप लगाया है कि वहां तैनात पुलिसकर्मी भी मूकदर्शक बने खड़े रहे। यही नहीं, इस मामले में मीडिया तक ने चुप्पी साध रखी है।
अब सोचने की बात है कि क्या इसी को हिंदुत्व कहते हैं ये कट्टरपंथी, यदि हां तो इनमें और मुस्लिम कट्टरपंथियों में कोई अंतर नहीं, जो धर्म के नाम, जिहाद के नाम पर मुसलमानों को आतंक के रास्ते पर धकेलते हैं। ये राष्ट्रप्रेमी इसी को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जामा पहना कर उछल-कूद करते रहते हैं और यही इनका देशप्रेम है। मैं व्यक्तिगत तौर पर ईश्वर या धर्म को नहीं मानता लेकिन हर तरह के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करता हूं। इसी वजह से मेरा यह मानना है कि जब हिंदुओं को आए दिन सड़क के बीचों-बीच रातभर जागरण करने, कभी साईं बाबा, कभी भोले-शंकर का या कोई और धार्मिक जुलूस निकालते का अधिकार है, थोड़ी-थोड़ी दूर पर मंदिर बनाने का अधिकार है, तो दूसरे धर्म का आराधना स्थल बनने से इनको आपत्ति क्यों है।
34 comments:
अगर वाकई वह भूमि मस्जिद के लिए आवंटित है तो उस पर उसे बनाने पर बवाल करना बेशक निन्दा और क़ानूनी कार्यवाही योग्य है।
वैसे आप की पोस्ट एकतरफा है। दैनिक मुस्लिम आतंकवाद, जुमे के दिन सड़कों पर नमाज पढ़न, मोहर्र्म चेहल्ल्म के दिन सरे आम स्यापा करन,े , छाती पीट जुलूस निकालने े और रोज पाँच दफे 'अल्ला हो अकबर' का उद्घोष सुनने से बहुसंख्यकों को कितनी परेशानी होती है, कभी आप ने सोचा है?
मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं है। यह अब मान लें। 20 करोड़ से उपर की आबादी हो चुकी है इनकी।
हिन्दू और मुसलमान दोनों को मन्दिर मस्जिद नहीं, किसी और बात की आवश्यकता है। मुसलमानों को खास कर ये बात न समझा कर बुद्धिजीवी वर्ग उनका अहित ही कर रहा है।
कट्टरता किसी भी डिजाइन की हो गलत है।
मैं गिरिजेश राव से सहमत हूँ। लेकिन आपके ब्लाग पर आप का प्रोफाइल मुझॆ ढ़ूढे नही मिला। यह छ्द्म क्यों? कैसे माना जाये कि आप संदीप हैं? क्या आप किसी षडयंत्रकारी ग्रुप से संबद्ध हैं?
यदि जमीन मस्जिद के लिए नियमानुसार आवंटित है तो उपद्रव नहीं होना चाहिए |
वैसे सरकारी महकमों को किसी भी धर्म स्थल के लिए जमीन आवंटित करते समय स्थानीय निवासियों की राय जरुर लेनी चाहिए लेकिन ज्यादातर मामलों में ये आवंटन गुप्त तरीके से हो जाते है जो आगे जाकर धार्मिक विवादों को जन्म देते है हो सकता यह आवंटन का मामला भी विवादित हो इसलिए ये उपद्रव हुआ हो |
कभी कुछ अल्पसंख्यकों की कारस्तानियाँ भी तो लिखए जनाब ! सिर्फ उग्र हिंदुत्व पर लिखने मात्र से कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं जाता |
एकतरफा लिखना भी एक तरह की साम्प्रदायिकता ही है |
मै भी दिनेश जी की बात से पूर्णतया सहमत हूँ " कट्टरता किसी भी डिजाइन की हो गलत है।"
गिरजेश राव जी,
मेरी पोस्ट एक तरफा नहीं है, बल्कि आपकी टिप्पणी निंदनीय और एक तरफा है। यदि आप संघ गिरोह के 1925 से जारी प्रचार के प्रभाव में वाकई ऐसा मानते हैं तो उसका जवाब नीचे दे रहा हूं, वरना आप भी घुणा के बीज बोने वालों में से ही हैं।
जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था, उस समय भी संघ गिरोह सिर्फ मुसलमान मुसलमान चिल्ला रहा था, अंग्रेजों के तलुवे चाट रहा था और बोल रहा था कि बीस पच्चीस साल में मुसलमान इस देश पर राज करेंगे। सन 80 में भी विहिप आदि यही चिल्ला रहे थे, लेकिन आज तक तो मुसलमानों की संख्या इतनी नहीं बढ़ी है। वे अब भी अल्पसंख्क ही हैं। और आप कहते हैं कि वे बीस करोड़ हो गए हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि 2001 की जनगणना के मुताबिक ही वे लगभग 13 करोड़ ही हैं।
और आप बहुसंख्क की भावनाओं की बात कर रहे हैं, तो यह बताइए कि आए दिन सड़क जाम करके हिंदू धर्म के लोगों के धार्मिक जुलूस निकलते हैं, सड़कों पर रातभर माता का जागरण होता है, और उसमें रात भर माता के जयकारे लगते रहते हैं, मंदिरो में लाउडस्पीकर लगाकर भजन कीर्तन होते रहते हैं, तो उससे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती होगी क्या... आपको चीख चीख कर भोले शंकर, माता, राम के नाम के जयकारे लगाने का अधिकार और मुसलमान अल्लाहो अकबर करें तो वह आपको स्यापा लगता है। जनाब यह जहर उगलना बंद कीजिए। उस पर से चिंता यह कि बुद्धिजीवी मुसलमानों को समझाएं...
और वेद भारती जी, प्रोफाइल तो तकनीकी दिक्कत की वजह से नजर नहीं आ रहा था, इतने में ही आप षडयंत्रकारी साबित करने लगे, मतलब आप लोगों के कुत्सा प्रचार और घृणित कार्रवाइयों को विरोध किया जाए तो आप देशद्रोही और षड्यंत्रकारी होने का आरोप लगा देंगे, गजब ''देशप्रेम'' है आपका।
शेखावत साहब, अल्पसंख्कों के खिलाफ तो आप लोग लगातार लिख ही रहे हैं, यदि मैं भी लिखने लगा तो आपके पास काम नहीं रह जाएगा
, आप लोग अपना काम करते रहिए। मैं पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान आदि में होता तो मुस्लिम कट्टरपंथ का विरोध मेरा एजेंडा होता, लेकिन भारत में हूं इसलिए हिंदुओं के कट्टरपंथ का विरोध तो करूंगा ही, क्योंकि हिंदू धर्म बहुसंख्यकों का धर्म है यहां। वैसे भी यह पोस्ट मैंने धर्म के नाम पर गुण्डागर्दी करने वालों के खिलाफ लिखी थी, आप उस गुण्डागर्दी को ठीक मानते हैं क्या....
और हां, कट्टरपंथियों तथा धर्म के नाम पर नफरत के बीज बोने वालों के खिलाफ कही जाने वाली हर बात को जबरन सभी हिंदुओं की ओर मोड़ने का प्रयास मत कीजिए जनाब।
अमाँ यार आप तो बेबात टिप्पणी करने लगे। मैंने आप के पक्ष को गलत तो नहीं कहा बस दूसरा पक्ष भी रख दिया। मिर्ची क्यों लगी? बर्र काटने जैसा बनबनाने के बजाय उस पर विचार करें।
संघी या जमाते इस्लामी या नक्सली की आप जानें। हमें इनसे कुछ नहीं लेना देना। कोई भी सच सिर्फ इसलिए झुठलाया नहीं जा सकता कि वह तथाकथित बहुसंख्यकों से सम्बद्ध है। मेरिट देखें हुजूर, केस का मेरिट देखिए। मुहर्रम के दिन स्यापा ही किया जाता है, अपने किसी मुसलमान मित्र से पूछ लें। किस तरह से किया जाता है, समझाने के लिए कहिए तो एकाध फोटो भेज दूँ।
रही बात संख्या की तो आप के यह मानने से कि 2001 के बाद 8 सालों तक मुसलमानों की संख्या स्थैतिक ही है, कुछ फरक नहीं पड़ता। संख्या बढ़ कर 20 करोड़ हो चुकी है, इसे मुसलमान भी मानता है।
अल्पसंख्यता आप तब तक मानें जब तक कोई समुदाय 50% से एक भी कम रहे, मानते रहें। उससे भी कोई फर्क नहीं पड़्ता। लोग अब इस पाखण्डी पॉलीटिक्स को समझने और उसके विरुद्ध कहने भी लगे हैं। बहुत शीघ्र अल्पसंख्यत्त्व absolute संख्या के आधार पर परिभाषित होगा। अब आप उसे मानें या न मानें।
अधिक कह दिया हो तो टिप्पणियाँ हटा दें।
;) टिप्पणियों को पूरा पढ़े भी नहीं और जवाब, हिसाब माँगने लगे जैसे मैं हिंदू कट्टरपंथियों का समर्थक और प्रवक्ता हूँ ! अच्छा है।
मुझे जो कहना था कह दिया, और कुछ नहीं कहना। कुछ और ब्लॉगरों को पढ़ें? और भी दर्द हैं अहले जहाँ में!
संदीप जी, ब्लॉग का नाम बदलकर "हिन्दुओं की बर्बरता के विरुद्ध" कीजिये, क्योंकि पिछले लेख और साइड बार देखने पर "सिर्फ़ हिन्दू-भाजपा-संघ ही बर्बर हैं ऐसा प्रतीत होता है" और यदि ऐसा नहीं है तो विदेश तो छोड़िये, अपने देश में ही असम, केरल और कश्मीर के मुस्लिमों की बर्बरता के विरुद्ध भी कुछ लिखें तभी तो पता चलेगा कि आप वाकई सिर्फ़ और सिर्फ़ "बर्बरता" के विरुद्ध हैं… वरना नाम बदलने में कोई बुराई नहीं है…। "हिन्दुओं की बर्बरता के विरुद्ध" क्या शानदार नाम होगा, हिट्स भी खूब मिलेंगे, विज्ञापन भी मिल सकते हैं, विदेश से चन्दा भी मिल सकता है, जैसा कई मशहूर(?) पत्रकारों के ब्लॉग कर ही रहे हैं। अरे भाई, जब तक आप सेकुलरिज़्म(???) के पक्ष में नहीं बोलेंगे, प्रगतिशील कैसे कहलायेंगे? और अब तो कम से कम अगले 5 साल तक यही भजन गायेंगे तभी तो कुछ "कमा" सकेंगे… कुछ जुगाड़ लगा सकेंगे… जय हो, जय हो।
थोड़ा विषयांतर - एक हम हैं, जो चाहते हैं कि भाजपा अगले 2-4 चुनाव और हारे (इस बात से सेकुलर लोग जो भाजपा की हार से खुश हैं और भी खुश हो जायेंगे) ताकि फ़िर कभी भी "हिन्दुत्व" से एक इंच भी पीछे न हटे… सेकुलरिज़्म का जो भूत, भाजपा (आडवाणी) के सिर चढ़ा था, शायद अब उतर जाये। कांग्रेस अगले 50 साल भी सत्ता में रहे, हमें और देश को क्या फ़र्क पड़ने वाला है? पहले भी तो 50 साल तक झेल चुके हैं, अगले 50 साल भी झेल लेंगे… लेकिन भाजपा को सबक सिखाना जरूरी है ताकि वह पुनः कभी भी "सेकुलरिज़्म" नामक नाले में लोट लगाने न निकल पड़े।
चिपलूनकर साहब,
मैं हिंदुओं नहीं कट्टरपंथी हिंदुओं की बर्बरता की बात कर रहा हूं, और यदि आपने पिछली कुछ पोस्ट पढ़ी हों, तो आपको शायद पता हो कि मैं कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष नहीं बताया है, और पिछली पोस्ट क्यों इसी पोस्ट में मेरे कमेंट्स पढ़ लीजिए। बाकी जवाब भी पहले कमेंट्स में हैं। लगे रहिए।
संदीप मियाँ,
१) "जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था, उस समय भी संघ गिरोह सिर्फ मुसलमान मुसलमान चिल्ला रहा था, अंग्रेजों के तलुवे चाट रहा था और बोल रहा था कि बीस पच्चीस साल में मुसलमान इस देश पर राज करेंगे। सन 80 में भी विहिप आदि यही चिल्ला रहे थे, लेकिन आज तक तो मुसलमानों की संख्या इतनी नहीं बढ़ी है। वे अब भी अल्पसंख्क ही हैं।"
बहुत सही भविष्यवाणी थी - बिलकुल २०-२५ वर्ष बाद सन् १९४७ में पाकिस्तान बन गया।
इसी तरह १९८९ से ही भारत का काश्मीर पाकिस्तान समर्थकों के आधीन है।
बांग्लादेशी पूरे भारत में और विशेषकर पूर्वोत्तर में हाबी हो चुके हैं।
२) आप कहते हैं कि आप भारत में हैं इसलिये भारत में जो हो रहा है केवल उसी से मतलब है! मियाँ, आप धरती पर भी हैं। आप इस विश्व के नागरिक भी हैं।
यदि पलायनवादी उत्तर ही देना था तो यह भी कह सकते थे कि " मैं झुमरी तलैया गाँव का रहने वाला हूँ; मुझे दिल्ली से क्या मतलब!"
तब भी कोई पूछ बैठता कि आपने ये क्यों नहींकहा कि आप तो "पच्छिम टोला" के रहने वाले हैं....
3) आप यह भी लिख रहे हैं कि आप पुनरुथानवाद के खिलाफ हैं! यदि यह सही है तो कमीनिज्म तो कब का मर गया (लेनिन की कब्र खुदी थी, याद है?)। क्यों इसे फिर से जिन्दा करने का मन्त्र पढ़ रहे हैं?
४) ""जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था, उस समय ..."
आपको यह भी पढ़ाया गया होगा कि १९४२ में जब पूरा देश "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दे रहा था तब कम्युनिस्टों ने अंग्रेजों का साथ दिया था।
जब चीन ने भारत के पीठ में छुरा घोंपा तो कम्युनिस्टों ने चीनियों की भाषा में बोलना शुरू कर दिया।
आज भी बहुत से कम्युनिस्ट चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान का हित पहले देखते हैं; भारत का अन्त में। (अरुंधति राय को याद कीजिये)
बहुत से कम्युनिस्ट चीन द्वारा संचालित मावोवादी आतंक (इसे बर्बरता नहींकह सकते?) में भारत के विरुद्ध लड़ रहे हैं।
जब कहीं नफ़रत पल रहा हो तो उसकी जितनी बात करोगे वह बढ़ेगी ही.
संदीप जी , मेरा अभिमत यह है कि आलेख से यदि कोई असहमति हो तो तर्कों पर आधारित होना चाहिए ! आपके आलेख पर टिप्पणिया पढ़ कर ऐसा लगा कि कुछ व्यक्तिगत आक्रोश भी पाठकों की लेखनी पर हाबी हो रहे हैं और संभवतः कुछ कुतर्क भी !
आपके इस आलेख से मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत हूँ और मानता हूँ कि प्रकरण विशेष को लेकर लिखे गए इस आलेख में "स्यापे" जैसे तर्क का कोई स्थान नहीं हो सकता और ना ही इसमें मुस्लिम बर्बरता के आंकडे घुसाने की जगह बनती है ! इसलिए एक अच्छे आलेख के लिए बधाई...... लेकिन ... लेकिन .....लेकिन बर्बरता केवल एक धर्म तक सीमित हो ऐसा भी तो नहीं है ना ! इसलिए कभी उन अनुभवों पर भी लिखें जो मुस्लिम या ऐसे ही दूसरे धर्मावलम्बियों की बर्बरता के उद्धरण हों !
मेरा कहने का आशय यह है कि बर्बरता समस्त धर्मावलम्बियों के असामान्य / असहज व्यवहार और सोच की सन्तति है इसे इंसानी मूल्यों के विरुद्ध घृणाजीवियों का अभ्यारण्य भी कह सकते हैं ! बर्बर लोग सभी धर्मो में मौजूद हैं !
मेरे लिए हिन्दुओं की बर्बरता पर लिख कर भी आप केवल 'संदीप' हैं और मुसलमानों की बर्बरता पर लिख कर भी केवल 'संदीप' ही रहेंगे ! ना 'मियां' और ना ही 'पंडित' !
अनुनाद जी , असहमत होना बुरी बात नहीं है पर नाम और संबोधन ? आक्षेपों से मुक्त होना चाहिए !
कुछ और सवाल-
१) कम्युनिज्म, कट्टरपन्थ है या उदारपन्थ? कुछ उदाहरण भी दें।
२) मुहम्मद और लादेन के इस्लाम में कौन अधिक उदारवादी है?
३) दकियानूसी किस चिड़िया का नाम है? एक विचार (प्रोपेगैंडा) था जो सौ साल के भीतर ही दम तोड़ गया। भारत के पैर में फिर से उस वैचारिक चक्की को बांधना दकियानूसी है या प्रगतिशीलता? (क्या इस विचार की मृत्यु को गणितीय प्रमेय की तरह सिद्ध करना पड़ेगा, तब मानेगें ?)
इतनी गंभीर बात अखबारों की सुर्खियाँ नहीं बनी चौकाती ज्यादा है . क्या आप गलत बयानी तो नहीं कर रहे ?
अनुनादजी, बात को भटका क्यों रहे हैं। कम्युनिज्म के इतिहास और भविष्य पर भी बात करेंगे लेकिन आपके कहने से नहीं। इस पोस्ट के संदर्भ में बताइए कि
-क्या समाज में जीने, अपने विश्वासों का पालन करने का अधिकार सिर्फ बहुसंख्यक धर्म को मानने वाली आबादी के पास ही रहना चाहिए?
- आपके हिसाब से समाज विभिन्न आस्थाओं वाले लोगों के या तो होने ही नहीं चाहिए या हों तो बाकी आबादी को बहुसंख्यक आबादी की मर्जी से अपना सामाजिक व्यवहार, अपनी आस्थाओं का पालन करें।
- क्या बहुसंख्यक आबादी को किसी भी किस्म की गुण्डागर्दी की छूट दी जानी चाहिए?
अनुनाद सिंह,
मुझे क्या पढ़ाया गया है या मैंने क्या पढ़ा है, उसकी बात भी कर लेंगे, लेकिन लगता है आपको जो पढ़ाया गया है, उससे आप सिर्फ कुतर्क करना, गाली-गलौज करना, और हर समस्या का समाधान मुस्लिम को बताना, मियां जैसे संबोधनों का इस्तेमाल करना, और झूठ को सच साबित करने का प्रयास करना जरूर सीख गए हैं।
मैंने इस पोस्ट में जो लिखा है, उसका आपने जवाब तक नहीं दिया।
- और कम्युनिज्म पर बहस करने का यह मंच नहीं है, न ही यह पोस्ट इस बारे में थी। मैं अपने दूसरे ब्लॉग पर इस बारे में लिखूंगा, तब जरा यह बताइएगा कि आप कम्युनिज्म के बारे में क्या जानते हैं और माकपा, भाकपा, भाकपा माले जैसों को कम्युनिस्ट कहते हैं या नक्सलवादियों को कम्युनिस्ट कहते हैं। आपकी अधकचरी समझ का इससे पता चलता है कि आप अरुंधति राय को कम्युनिस्ट कहते हैं, जरा उनसे ही पूछ लीजिए कि वह खुद को कम्युनिस्ट कहती हैं क्या...और आपकी समझ का इससे भी पता चलता है कि आप चीन को कम्युनिस्ट देश कहते हैं उस पर से उसे माओवादी गतिविधियों का संचालक भी बताते हैं, भइये जरा नेट ही खंगाल लिए होते, तो पता चलता कि चीन की सरकार सबसे ज्यादा विरोध और कुप्रचार माओ और सांस्कृतिक क्रांति का ही करती है।
और आपके लिए देशप्रेम का क्या अर्थ है... वैसे आप लोगों का पुराना फंडा है कि समस्याओं के कारणों की बात करो तो चिल्लाने लगो मुसलमान मुसलमान, और जो विरोध करे उसे देशद्रोही आदि का तमगा लगा दो। आप की जमात का देशप्रेम तो तभी जाहिर हो गया था जब अंग्रेजों के एक बार हड़काने पर संघियों ने अपनी कमीज का रंग बदल दिया था, सारे नेता माफीनामा लिखकर जेलों से बाहर आए, गांधी की हत्या पर मिठाइयां बांटी, विनिवेश मंत्रालय बनाया, भारत छोड़ो आंदोलन में जब सारा भारत अंग्रेजों का विरोध कर रहा था, तो आप अंग्रेजों का विरोध करने वाली सारी जनता को प्रतिक्रियावादी बता रहे थे, नौसेना विद्रोह में भी आप अंग्रेजों के साथ थे क्योंकि सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ बंदूक उठायी थी, आप गुजरात के दंगों को देशप्रेम कहते हैं, मालेगांव विस्फोट को देशप्रेम कहते हैं, या नासिक-कानपुर में बम बनाने के दौरान हुए विस्फोट में संघियों-बजरंगियों के शामिल होने का देशप्रेम कहते हैं।
- मैंने भारत का नागरिक होने का उल्लेख जिस संदर्भ में किया था, उससे काट कर पलायनवादी होने का आरोप लगा कर आप खुद अपनी पलायनवादी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। पश्चिमी टोला (हिंदू राष्ट्र) की चीख पुकार आप मचाते हैं मैं नहीं।
- लेनिन की कब्र खुदी थी या नहीं, इसके बारे में थोड़ा इतिहास ही पढ़ लेते भइया।
- पुनरुत्थानवाद और कम्युनिज्म की आपकी हास्यास्पद तुलना भी फिर आपकी अधकचरी समझ, और जड़ दिमाग का संकेत है। थोड़ा पढ़ा करो भाई, नहीं तो किसी पत्रकार, अकादमिशियन, इतिहास-राजनीति शास्त्र के छात्र से ही पूछ लेते तो आपको इनका मतलब और अंतर पता चल जाता।
- अनुनाद जी, आपको इस ब्लॉग में किस पोस्ट से यह मनमाफिक निर्णय निकालने का मौका मिल गया कि मैं लादेन या मोहम्मद को उदारपंथी बता रहा हूं, ज़रा जानकारी दें तो हम अपनी गलती ठीक करें, यदि गलती की हो तो।
खैर, नफरत फैलाते रहिए, कुतर्क करते रहिए, या यूं कहें कि लगे रहिए, आपका ईश्वर आपको सदबुद्धि दे।
और हां, कपिल भाई की बात का भी जवाब दें।
धन्यवाद समीर, आपकी बातों पर विचार करूंगा। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों, तालिबान की आड़ में पूरी मुसलमान कौम के खिलाफ इंटरनेट पर जहर उगला जा रहा है। हिंदी ब्लॉग जगत पर भी इस तरह नफरत फैलाने वाले, और हर मुसलमान का देशद्रोही करार देने वाले ब्लॉग कुकरमुत्तों की तरह उग आए हैं।
ऐसे में मुझे लगता है कि इस साजिश और कुतर्कों के खिलाफ ब्लॉग पर लिखा जाए।
इस ब्लॉग का गठन ही साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए क्या गया है
ऐसा प्रतीत होता है समस्त लेखों से
आदर्श जी, ब्लॉग की पहली पोस्ट से लेकर आखिरी पोस्ट तक पढ़ डालिए, फिर शायद आपको यह प्रतीत न हो कि ब्लॉग सांप्रदायिकता फैलाने के लिए बनाया गया है। पता नहीं आपको ऐसा क्यों लगा, खैर, इस ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद।
प्रिय संदीप जी,
हिन्दू बर्बरता के विरूद्व आपका प्रतिरोध पड़कर अच्छा लगा.अब तो आपको अपने ब्लॉग का नाम बदल ही लेना चाहिए.आखिर क्यूँ सिर्फ संघ, उसकी कथित साम्प्रदायिकता,फासीवाद के बारे में लिख कर हम जैसे लोगों का समय बर्बाद करते हैं.ब्लॉग का नाम बदलकर हिन्दू बर्बरता या संघ का प्रतिरोध करने से हम जैसों का समय तो बचेगा ही,साथ की साथ केवल आप जैसे विचारों वाले संघाजैसों का गुणगान भी सुनने को मल जायेगा.आप जैसे बुद्धिजीवी ब्लॉगर्स ने तो केवल संघ विरोध को ही अपनी कमाई का जरिया बना लिया है.अच्छा है,संघ आपकी तरक्की की कामना करता है.पर आपसे एक सवाल है,आपकी कलम कभी कश्मीरी पंडितों के बारे में क्यूँ नहीं लिखती जिन्हें पूजा करने का अधिकार तो छोडिये,अपनी भूमि पर रहने का अधिकार भी नहीं मिला हुआ है.गुजरात दंगे हमेशा याद आते हैं आपको, पर कभी गोधरा,कानपूर दंगों के बारे में कुछ नहीं पड़ा एके ब्लॉग पर. मालेगांव को तो अपने हिन्दू आतंकवाद का ही नाम दे दिया,पर दिल्ली के,वाराणसी के मंदिरों में हुए विस्फोटों पर भी कभी कुछ कहेंगे.अरे आप की एक पोस्ट ने तो मुंबई हमले में भी आर एस एस ,मोसाद एवं अमेरिका का हाथ बता दिया. छद्म- धर्मनिरपेक्षता का चोल फेकियें जनाब एवं अपने असली रूप में सामने आइये. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब डेस्क की जनता ही आप जैसों का चेहरा सामने ला देगी.
याद रखिये जहाँ भी मुस्लिम जनसँख्या बढ़ी है वहां से अलगावबाद की मन उठने लगी है.असम , कश्मीर तो बस उदाहरण है इसके.
आपका यह तर्क की मैं भारत में हूँ इसलिए हिन्दू कट्टरपंथियों के बारे में लिखूंगा और अगर इरान में हुआ तो मुस्लिम कट्टरपंथियों के बारे में लिखूंगा,आपकी शिक्षा, आपके देश-प्रेम और आपके विचारों का दर्पण दिखा देता है. आप जैसे लोग कहीं के नहीं हो सकते, आप को सिर्फ विरोध की आवाज उठा के सुर्खियाँ बटोरना आता है. अरुंधती राय जैसों को अपनाआदर्श मानिये जनाब,जली तरक्की करेंगे. अगर संघ वाले कथित रूप से स्वतंत्रता संग्राम के ज़माने में भी मुसलमान-२ चिल्लाते थे,तो इसलिए क्यूँ की उन्हें इनका इतिहास पता है. आखिर देश के तीन टुकड़े करवा ही दिए ना इन मुसलामानों ने.तब भी आप जैसे ही लोग भरे पड़े थे देश में.
आप जैसे संघाजैसों की वजह से ही देश १८५७ में आजाद नहीं हो पाया था.लेकिन अब आपकी सुनने वालाकम हो गए हैं साहब. अगर संघ की विचारधारा को संघाजैसों ने नाकारा होता तो आज संघ संघ न बनता. ना ही आप जैसे लोग संघ के ऊपर लिखने में अपना समय बर्बाद करते.
मित्र, पहले मेरी पोस्ट में उठाये गये सवालों का जवाब तो दीजिए, और अरुंधति राय को आदर्श क्यों बनाऊं भाई, अरुंधति से इतने प्रभावित हैं तो आप ही उन्हें अपना आदर्श बनाइए।
और मित्र मैं हिंदू कट्टरपंथियों की बात कर रहा हूं, सभी हिंदूओं को क्यों घसीट रहे हैं। यार ये सब पुराने फंडे हो गए हैं, छोड़िए भी।
और संघ अंग्रेजों के तलवे चाट कर मुसलमान मुसलमान चिल्ला रहा था या नहीं, उसके लिए आप नेशनल आर्काइव, ब्रिटिश आर्काइव, इतिहास की पुस्तकें सब छान लीजिए, तो पता चल जाएगा कि आपके संघ का देशप्रेम कैसा है। किस किस को झूठा साबित करोगे मित्र।
मैं भारत में हूं तो हिंदुत्व के नाम पर जारी कट्टरपंथ का विरोध करूंगा, इस बात से मेरे देशप्रेम का कौन सा चेहरा उजागर हो गया भाई। धर्मनिरपेक्षता और छद्म धर्मनिरपेक्षता में अंतर होता है, आप लोग कांग्रेसियों को यह तमगा देते हैं तो समझ आता है, क्योंकि वह वोटों की राजनीति करती है। लेकिन सांप्रदायिकता का विरोध करने वाले हर व्यक्ति पर यह तमगा लगाना तो संघ का पुराना तरीका है।
खैर, आप संघ के भजन गाइए, और गोएबल्स के मंत्रोच्चारों को दोहराते रहिए...यानी लगे रहिए।
बर्बरता हर देश में होती है,हर धर्म में होती है. मैं सहमत हूँ आपके द्वारा उठाये गए सवालों से.
पर यहाँ आप सिर्फ हिन्दू धतं,और उसमे भी केवल संघ परिवार को ही निशाने पर ले रहे हैं.
अमरनाथ का संघर्ष तो याद होगा न आपको. श्राइन बोर्ड को जो जमीन आवंटित हुई थी,उसे लेकर कितना हल्ला मचाया था कश्मीर की पार्टियों ने,मुसलमानों ने वो तो याद है न आपको.
तब तो आप जैसा कोई बुद्धिजीवी निकल कर सामने नहीं आया था.जवाब दें???
साम्प्रदायिकता का जितना विरोध करना है करिए. ये सही भी है. पर संघ के हिंदुत्व का सिर्फ वही पहलु अपने देखा है जो आपको इस मीडिया ने दिखाया-सुनाया है.क्या भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता का विरोध भर है.मुस्लिम साम्प्रदायिकता,ईसाई साम्प्रदायिकता वाजिब हैं.?????
संदीप जी,
साथ ही तमाम बुद्धिजीवियों को इस अदने का सलाम कुबूल फरमाएं...
पहले साफ़ कर दूं..मै ना तो किसी गुमनाम अल्लाह का बन्दा हूँ, ना ही किसी कोने में छुपे (अगर है तो) एक बेबस की तरह तमाशा देखने वाले भगवान् का भक्त हूँ.
इंसान हूँ, इंसानियत की कद्र करता हूँ..
जहां तक इस ब्लॉग पर उभरे बेमतलब विवादों का सवाल है.. तो बस एक ही लाइन कहूँगा..कि आप तमाम लोगों की प्रतिक्रयाओं से यही लगा कि आपके अन्दर एक डर, घर कर गया है. कहीं आपका घर-बार ना छिन जाए..मुस्लिमों की बढती आबादी से आप बड़े परेशान नज़र आ रहे हैं..जहां तक एकतरफा होने का सवाल है तो ये लाजिमी है.. क्यूंकि एक अरब की आबादी में अगर वो २० करोड़ हैं तो कुछ ज़्यादा नहीं हैं...
ज़मीन को लेकर जो विवाद उठा है ये कोई नया मसला नहीं है.. क्यूँ भूल गए कि कितनी बेरहमी से बावरी मस्जिद को तोड़ कर गिराया गया था.. मसला क्या था ये जाने बगैर..
दबाने की नीति अब ना चलेगी.. याद रखियेगा...
संदीप जी आपका शुक्र-गुजार हूँ कि कम से कम एक शख्स तो सच लिखने कि ताकत रखता है..
चमचा-गिरी से अलग तो है..
ऐसे हिन्दू या मुस्लिम होने से नास्तिक होना बेहतर है..
आपका दोस्त..
नाम नहीं लिखूंगा, वरना आप मजहब टटोलना शुरू करेंगे..
महोदय,
अगर आपको किसी देश की जनसँख्या में २०% हिस्सेदारी रखने वाला वर्ग भी अल्पसंख्यक लगे और "कोई ज्यादा" न लगे,तब तो आपकी गणितीय समझ के अंदाजा लगाया जा सकता है. याद रखिये, इतिहास साक्षी है जब भी कभी मुस्लिमों की संख्या बढ़ी है,उस देश से अलगाववाद की मांगें उठने लगी हैं.kashmir,asam तो udaharan भर हैं इसका.जब तक कश्मीर में कश्मीरी पंडित थे, वहां ऐसी मांगों को या तो अनसुना कर दिया जाता था,या ऐसी मांगें उठती ही नहीं थी.पर जब से ये जनसँख्या संतुलन बिगडा है,हालत आपके सामने है.
जितनी जल्दी हो सके चेत जाइये जनाब,नहीं तो और पाकिस्तान बनाने में देर नहीं लगेगी.
हमारे पूर्वज एवं तथाकथित महापुरुष ये गलती कर चुके हैं,वो भी इन्हें नहीं समझ पाए थे.
पर हमने तो इतिहास पड़ा है,हम क्यूँ नादान बने बैठे हैं.
जहाँ तक बाबरी मस्जिद का सवाल है,तो आप जैसे लोग रोते ही रहेंगे उसपर.लेकिन आज तक कभी आपको मुग़लों के ज़माने में हुए अत्याचारों पर रोते नहीं देखा.ये लोग तो आज भी उस बाबर की पूजा करते हैं जिसने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया था. यदि आपको बाबर भी महँ लगे तो कृपया न भूलिए की हमारा पडोसी देश अपनी मिसाइलों के नाम उसी बाबर पर रखता है.
फिर से कह रहा हूँ,अभी भी समय है,सच्चाई को पहचानिये.नहीं तो वो समय दूर नहीं जब हम जैसे काफिरों को भी जजिया कर चुकाने का फरमान सुना दिया जायेगा.
सन्दीप भाई,
सबसे पहले आप को सलाम और आपकी बेबाकी काबिले तारिफ है….
अब उन तमाम लोगो की तरफ मुखातिब होना चहुँगा जिन्हे सन्दीप का यह पोस्ट कहीं न कहीं सच्चाई का आइना दिखाता है.
भाई, आपसब क्यों उस हिन्दुत्व का दम्भ भरते हैं जिसने बैठे-बिठाए एक बबंडर अयोध्या मे और एक भुचाल गुजरात मे पैदा कर दिया.
हम यह क्यों नही मानते कि अगर मुसलिम कटरपंथ गलत है तो हिन्दु कटरपंथ भी उतना ही गलत है बल्कि मुझे लगता है कि हिन्दु कटरपंथ ज्यादा खतरनाक है.
हिन्दुओं मे भी एक वर्ग है जो कट्टरपंथ को पाल-पोस रहा है कुछ लोग तलवार या त्रिशुल बाँट कर इस काम को कर रहे हैं तो कुछ अपने कलम का इस्तेमाल करके इसे पाल रहे हैं.
हमारी आबादी इस देश मे ८० करोड़ है और उनकी २० करोड़ और इतिहास गवाह है कि जब-जब, हिन्दु हर-हर माहदेव कहता हुआ सडक पर खुन बहाता है तो देश की सारी मशिनरी उनके लिए रास्ते को साफ बनाने मे लग जाती हैं, देश मे न्यायालय ही एक ऐसी संस्था है जिस पर आज मुस्लमानोंअ को थोडा भरोसा है.
ये मत भुलिए कि हमारी एक गलत बयानी से उस समुदाय मे भय और डर का जो माहौल बनता है उससे उस समुदाय के कट्टरपंथीयों का काम बहुत ही आसान हो जाता है.
हम वैसे तो अपने बच्चो को सिखते हैं कि, “बेटे अपनी कमी को देखने की जरुरत है और अपने आप को सुधारेने के लिए काम करो” लेकिन इस मुद्दे पर हर किसी को अपने नीचे यानि अपने धर्म मे कमी दिखनी बन्द हो जाती है ऐसा क्यो?
जनाब सेक्रेट स्वान,
आदाब!
आपकी इतिहास पे अच्छी पकड़ है, शायद!
आपकी पकड़ संभव है देश की भोगौलिक स्थिति पे भी अच्छी है..
लेकिन निस्संदेह मानवता से आप का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है, और पूर्वाग्रह से आप ना सिर्फ ग्रसित हैं बल्कि पूरी तरह उसकी चपेट में हैं.. एक और बात, हिन्दुओं के लिए आप कुछ कर दिखाने का जज्बा भी रखते हैं... पर माफ़ कीजिये मुझे आपके इस कॉम या किसी और कॉम से कोई लेना देना नहीं है... दलीलें हैं तो सही आपके पास लेकिन वो मुझ पर कारगर साबित ना हो सकेंगे.. इस बात का खेद है..
बाबर की पूजा हो, या अकबर का इस्तकबाल... मेरे हिसाब से कुछ भी गलत नहीं है... आपका हिन्दुस्तान भी तो उन्ही ने सजाया और सवारा है.. साम्राज्य विस्तार भी उन्होंने ही किया... बदले में आपने क्या दिया..
अगर आप मुस्लिमों के द्वारा हिन्दुओं के शोषण की बात करते हैं... तो फिर पहले खुद शोषण करना बंद कीजिये... कलम से ज़हर की बजाय दो प्यारे बोल निकालिए..
आप मजहबी शोषण की बात करते हैं... मै उस मजहब विशेष की बात ना करते हुए आपका ध्यान खीचूँगा..एक होटल में काम कर रहे छोटे बच्चे के ऊपर किये जाने वाले अत्याचार की और, मजदूर तबके के लोगों की तरफ उठी आपकी हिकारत भरी नज़रों की तरफ.. औरतों के साथ घर में किये जाने वाले शोषण की तरफ.. जब ये ख़तम कर लेंगे तब आईएगा मजहब की तरफ..
और हाँ याद रखे, इस 'आप' से मै ना सिर्फ आपको चिन्हित कर रहा हूँ बल्कि तमाम लोगों को...
विश्वास है आपको मेरी बातें निरा बचकाना और हास्यास्पद लगेगी.. पर यथार्थ यही है कि इस मुल्क की चिंता ये नहीं है कि कितने मुस्लिम और कितने हिन्दू हैं बल्कि समस्या है कि लोग मजहब को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं...
आपका दोस्त..
महोदय,
आपकी इस बात से सहमत हूँ की मुग़लों ने देश को सजाया,संवारा है.पर इस के लिए धन तो हमसे ही लूटा था.कर तो हमसे ही बटोरा था.और उन्होंने आम लोगों के लिए नहीं बल्कि अपनी शान-ओ-शौकत के लिए ये सब बनाया था.किले बनाये तो अपनी सुरक्षा के लिए,ताजमहल बनाया अपनी बेगमों के लिए,मकबरे बनाये अपनी कब्र के लिए.वो तो आज हम वहां पर्यटन के लिए जाकर उनका महत्व बड़ा रहे हैं. किया तो अंग्रेजों ने भी बहुत कुछ था देश के लिए,सड़कें बनवायीं,रेल चलाई,तो क्या उनकी भी पूजा करने लग जाएँ?तोते को चाहें आप सोने का पिंजरा बना के दे दें,उड़ने का मन तो करेगा ही उसका.
एक और बात,आप कह रहे हैं की बदले में हमने क्या दिया?? आपके ये प्रश्न जितना हास्यापद है उतना ही मूर्खतापूर्ण. मुग़ल बाहर से कोई धन-दौलत नहीं लाये थे,सब कुछ ही तो हमारा था.
हमारा तो पूरा देश ही उनके कब्जे में था,इससे ज्यादा हम क्या देते?
जहाँ तक हमारी समस्याओं का सवाल है,तो मैं आपको बता दूँ की संघ सिर्फ हिंदुत्व की बात नहीं करता.उसके और भी बहुत संगठन हैं.आप जैसे लोगों से संघ परिवार के बारे में पूछो तो ३-४ संगठन गिना देंगे बस.बजरंग दल,विश्व हिन्दू परिषद् एवम बीजेपी. इससे ज्यादा ज्ञान नहीं है आप लोगों को.या यूँ कहें की आँखों में पट्टी बांध कर आप सिर्फ वही देखते हैं जो मीडिया आपको दिखाता है.विद्या भारती,संस्कार भारती,भारतीय मजदूर संघ,वनवासी कल्याण आश्रम के बारे में जानने की कोशिश करी है आप लोगों ने?? संघ कभी इन के बारे में प्रचार करना शुरू करता है तो आप जैसे बुद्धिजीवी, तथाकथित मानवाधिकारवादी शुरू हो जाते हैं अपना पुराना राग अलापना.कभी संघ के केम्पों में जा कर देखिये, पूरे भारत में छुआ-छूत दूर करने की इससे बड़ी मिसाल और कहीं नहीं मिल सकती.चाहें गुजरात का भूकंप हो,या बिहार,उडीसा की बाढ़,संघ के स्वयंसेवक हमेशा आगे रहते हैं.पर ये बातें आपको नहीं पता क्यूंकि मीडिया ने इसे कभी नहीं दिखाया.उसे तो सिर्फ हिंदुत्व ही नजर आता है हमेशा.आप बताएं आप लोगों ने क्या किया है आज तक समाज के निचले तबके के लिए,महिलाओं के लिए. अरे महिला आरक्षण विधेयक की सबसे बड़ी परोकर भी बीजेपी ही है जो संघ का ही संगठन है.
जहाँ तक आपका ये कथन पहले इन्हें सुलझाइए फिर मजहब को देखते हैं,आपके इतिहास के ज्ञान का दर्पण दिखा देता है.स्वतंत्र संग्राम में भी जब संघ मुस्लिम-२ चिल्लाता था,तब भी आप जैसे लोग ही कहते थे की अंग्रेज प्राथमिक समस्या है.पर देख लिया न उसका हश्र त्तोत गया न देश.गाँधी,नेहरु ने भी बहुत कोशिश थी की थी मुसलमानों को पटाने की,खिलाफत याद है न?? पर कुछ फर्क पड़ा था.आखिर दो देश ले कर ही माने न ये लोग.जनाब इतिहास सिर्फ रटने के लिए नहीं पढाया जाता, अपने पूर्वजों द्वारा की गयी गलतियों को सुधारने एवं न दोहराने के लिए पढाया जाता है.
हे प्रभु,
इन्हें मुआफ़ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।
जब ये जानते ही नहीं, तो इनसे कैसा गिला-शिकवा।
दया के, सहानुभूति के पात्र हैं।
‘समरथ कू नहीं दोस गुसांईं’
मनुष्य का मनुष्य होना अभी वाकई बहुत दूर की कौडी लगती है। जैसे इनमें हैं, वैसे उनमें भी हैं। मतलबपरस्तों का कोई आधार नहीं होता।
पर इतनी दूर की भी नहीं?
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