अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय: एक इतिहासकार की दृष्टि से

अयोध्‍या में मस्जिद-मन्दिर विवाद पर उच्‍च न्‍यायालय के फैसले के बाद इसकी चहुंओर आलोचना हो रही है। इतिहासकार इस फैसले को न्‍यायशास्‍त्र की एक गलत परंपरा की शुरुआत बता रहे हैं। और सांप्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि भी इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं। इसी को ध्‍यान में रखते हुए हम 'बर्बरता के विरुद्ध' पर एक श्रृंखला शुरू करने जा रहे हैं जिसमें  इतिहासकारों, कार्यकर्ताओं, फिल्‍मकारों, लेखकों आदि के लेख या कमेंट दिए जाएंगे। और इस फैसले की असलियत को सामने लाने का प्रयास किया जाएगा। इसी के तहत, हम साथी अमर के सहयोग से, सबसे पहले हिंदू में इतिहासकार रोमिला थापर के प्रकाशित लेख का संक्षिप्‍त संस्‍करण प्रकाशित कर रहे हैं। सभी साथियों से अपील है, कि इस पर और सामग्री जुटाने में हमारी मदद करें। बाद में 'बर्बरता के विरुद्ध' पर हम अपना स्‍टैंडप्‍वाइंट भी देंगे।  - मॉडरेटर
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अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 
निर्णय: एक इतिहासकार की दृष्टि से

रोमिला थापर ( ‘हिन्दू’ में 2/10/2010 को प्रकाशित लेख का हिन्दी रूपान्तर)

 यह निर्णय एक राजनीतिक फ़ैसला है जिसे तो राज्य ही बरसों पहले ही ले सकता था। इसमें पूरा ध्यान भूमि के स्वामित्व और ध्वस्त की गई मस्जिद के स्थान पर एक नया मन्दिर बनाने पर केन्द्रित रखा गया है। समस्या के मूल में था समकालीन राजनीति में कुछ धार्मिक हस्तियों की घुसपैठ का मामला परन्तु दावा यह भी किया जा रहा था कि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं. इस ऐतिहासिक प्रमाण वाले पक्ष का उल्लेख तो हुआ परन्तु निर्णय देते समय उसकी पूरी तरह से उपेक्षा ही की गयी।
     न्यायालय ने घोषणा की है की भूमि के एक सुनिश्चित टुकड़े पर ही एक दैवीय अथवा अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्म हुआ था जहां उस जन्म के उपलक्ष्य में एक नए मंदिर का निर्माण होना है। यह कहा गया है हिन्दू आस्था और विश्वास की अपील जवाब में। कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण किसी विधिक न्यायलय से ऐसे निर्णय की अपेक्षा नहीं की जाती। एक देवता के रूप में राम में हिन्दुओं की गहरी आस्था है पर क्या मात्र इसी आधार पर जन्मस्थान के दावों, भूमि के स्वामित्व, और भूमि पर कब्ज़े के लिए जानबूझ कर एक ऐतिहासिक स्मारक को ध्वस्त किये जाने के बारे में कोई कानूनी फैसला लिया जा सकता है?
     निर्णय में दावा किया गया है कि वहां १२ वीं शताब्दी का एक मंदिर था जिसे मस्जिद बनाने के लिए तोड़ा गया था - अतः नया मंदिर बनाने की वैधता स्वयंसिद्ध है। भारतीय पुरातत्व विभाग के खनन कार्य और उससे निकाले गए निष्कर्षों को उनकी समग्रता में स्वीकार कर लिया गया है जबकि अन्य पुरातत्ववेत्ता और इतिहासविद उनसे सहमत नहीं हैं। ऐसे विषय में व्यवसायिक निपुणता और दक्षता की आवश्यकता होती है। इस बारे में विशेषज्ञों के बीच में गहरे मतभेद होने के बावजूद किसी एक पक्ष के दृष्टिकोण को ही अत्यन्त सरलीकृत तरीके से स्वीकार कर लिये जाने के कारण इस निर्णय पर सहज ही भरोसा नहीं जमता। एक न्यायाधीश का कथन था कि उन्होंने ऐतिहासिक पहलू पर ग़ौर नहीं किया क्योंकि वे कोई इतिहासवेत्ता नहीं हैं पर उन्होंने आगे चल कर यह भी कहा कि इन मुकदमों पर निर्णय करने के लिये इतिहास और पुरातत्व की आवश्यकता नहीं है। और यह तब जब कि विचाराधीन मुद्दे ठीक वही हैं अर्थात दावों की ऐतिहासिकता और पिछली सहस्त्राब्दी की ऐतिहासिक इमारतें।
    एक विशिष्ट राजनीतिक पक्ष के नेतृत्व के आह्वान पर भीड़ ने लगभग 500 वर्ष पुरानी ऐसी मस्जिद को जानबूझ कर ध्वस्त कर दिया जो हमारी साँस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी। अदालती फ़ैसले के सारांश मे कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं है कि इस निरंकुश ध्वंस और हमारी विरासत के विरुद्ध इस अपराध की भर्त्सना की जानी चाहिये। नये मन्दिर का गर्भ-गृह- राम का अनुमानित जन्मस्थान-वहीं होगा जहां मसजिद का मलबा पड़ा है। जहां एक अनुमानित मन्दिर के ध्वंस की निन्दा की गई है और इसी कारण एक नये मन्दिर के निर्माण को उचित ठहराया गया है, मस्जिद के ध्वंस की कोई निन्दा नहीं की गई है और सुविधा के लिये उसे विचारणीय विषयों के दायरे से बाहर ही रखा गया।
एक मिसाल
     इस फ़ैसले ने अदालतों के लिये एक नज़ीर भी कायम कर दी है कि कोई भी समूह जो स्वयम को एक समुदाय बताता हो अपने द्वारा पूजित किसी भी दैवीय या अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्मस्थान बता कर ज़मीन के किसी भी टुकड़े पर दावा कर सकता है। अब से जहां भी कोई काम का भूखण्ड दिखेगा, या कोई विवाद उत्पन्न किया जा सकेगा; ऐसे कई जन्मस्थान सामने आयेंगे। और चूंकि एक एतिहासिक स्मारक को ध्वस्त करने की निन्दा-भर्त्सना नहीं की गई है लोग ऐसे ही अन्य स्थानों को नष्ट करने से क्यों हिचकेंगे? हम पिछले वर्षों में देख चुके हैं कि पूजा-स्थलों की स्थिति अपरिवर्तित रखने सम्बन्धी 1993 का कानून निष्प्रभावी ही रहा है।
     इतिहास में जो कुछ घटा, घट चुका। उसे बदला नहीं जा सकता। पर जो भी हुआ, हम उसे उसकी समग्रता में समझना तो सीख ही सकते हैं और चीज़ों को भरोसेमन्द साक्ष्यों के आधार पर परखने की कोशिश तो कर ही सकते हैं।
    समकालीन राजनीति का औचित्य सिद्ध करने के लिये हम अतीत को बदल नहीं सकते। इस निर्णय ने इतिहास के प्रति सम्मान के भाव को मिटाने का काम किया है और इतिहास की जगह धार्मिक आस्था को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। सच्चा समझौता तो इस भरोसे के आधार पर ही हो सकता है कि इस देश का कानून आस्था और विश्वास पर नहीं बल्कि ठोस सबूतों के आधार पर काम करता है।

5 comments:

Tausif Hindustani said...

हमारा मीडिया अगर पूरा सच दिखता तो लोग इतने बड़े पैमाने पे बेवक़ूफ़ न बनते
काफी अच्छा लेख लिखा है
एक बार इसे भी पढ़े

http://dabirnews.blogspot.com/2010/10/blog-post_3156.html

कामता प्रसाद said...

यह लेख समस्‍या को देखने का एक सराहनीय प्रयास है। कोर्ट आफ लॉ के लिए विधिक अदालत नामक एक नया शब्‍द भी प्राप्‍त हुआ। अभी जितना देख-समझ पा रहा हूं उसके आधार पर कह सकता हूं कि मोटे तौर पर मुस्लिमों का विश्‍वास इस व्‍यवस्‍था के न्‍याय के गोचर अंग से उठा हुआ सा दिख रहा है लेकिन विकल्‍प पेश करने वाली ताकतें चूंकि अभी कमजोर हैं इसलिए यह अविश्‍वास एक धार्मिक मूलतत्‍व से प्रेरित दूसरे किस्‍म के अतिवाद को जन्‍म देगा। इस संकट को भी समझना होगा।

कामता प्रसाद said...

यह लेख समस्‍या को देखने का एक सराहनीय प्रयास है। कोर्ट आफ लॉ के लिए विधिक अदालत नामक एक नया शब्‍द भी प्राप्‍त हुआ। अभी जितना देख-समझ पा रहा हूं उसके आधार पर कह सकता हूं कि मोटे तौर पर मुस्लिमों का विश्‍वास इस व्‍यवस्‍था के न्‍याय के गोचर अंग से उठा हुआ सा दिख रहा है लेकिन विकल्‍प पेश करने वाली ताकतें चूंकि अभी कमजोर हैं इसलिए यह अविश्‍वास एक धार्मिक मूलतत्‍व से प्रेरित दूसरे किस्‍म के अतिवाद को जन्‍म देगा। इस संकट को भी समझना होगा।

Anand Singh said...

गौर करने वाली बात है कि इस फैसले के बाद जो लोग भारतीय न्यायिक व्यवस्था की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं वो वही लोग हैं जिन्होंने इसी न्यायिक व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते हुए १९९२ में बाबरी मस्जिद गिराने का आपराधिक कृत्य अंजाम दिया था. तब उनका तर्क था कि आस्था का प्रश्न क़ानून से परे है. ऐसे अपराधियों को कड़ी सजा देने के बजाय उन्हें इस फैसले के रूप में इनाम देना इस पूरी व्यवस्था के धर्म निरपेक्षता के दावे कि कलाई खोल देता है.

Anand Singh said...

गौर करने वाली बात है कि इस फैसले के बाद जो लोग भारतीय न्यायिक व्यवस्था की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं वो वही लोग हैं जिन्होंने इसी न्यायिक व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते हुए १९९२ में बाबरी मस्जिद गिराने का आपराधिक कृत्य अंजाम दिया था. तब उनका तर्क था कि आस्था का प्रश्न क़ानून से परे है. ऐसे अपराधियों को कड़ी सजा देने के बजाय उन्हें इस फैसले के रूप में इनाम देना इस पूरी व्यवस्था के धर्म निरपेक्षता के दावे कि कलाई खोल देता है.