तसलीमा नसरीन और मक़बूल फ़िदा हुसैन

अमर ज्‍योति

तसलीमा नसरीन एक बार फिर चरचा में हैं। इस बार मुद्दा है कर्नाटक के किसी अख़बार में प्रकाशित उनके किसी लेख का कथित अनुवाद। कथित इस लिये क्योंकि स्वयं तसलीमा ने उक्त अख़बार के लिये ऐसा कोई लेख लिखने से इन्कार किया है। उन्होंने लिखा या नहीं यह एक अलग जांच का विषय हो सकता है। परन्तु उस लेख के प्रकाशित होते ही दो बातें हुईं। एक ओर तो “इस्लाम” के तथाकथित रक्षक सड़क पर उतर कर तोड़-फोड़ में संलग्न हो गये तो दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तथाकथित ठेकेदार लगभग हमेशा की तरह अपने-अपने बिलों में दुबके नज़र आये।

राज्यसभा में वृन्दा करात मक़बूल फ़िदा हुसैन के पक्ष में तो बोलीं पर तसलीमा नसरीन के बारे में चुप्पी साध गईं। दूसरी ओर हुसैन की विरोधी भाजपा के बलबीर पुंज ने सिर्फ़ तसलीमा का मामला उठाया। पर प्रश्न तसलीमा या हुसैन का नहीं है। प्रश्न ये है कि धार्मिक फ़ासिस्टों को लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन का लाइसेंस किसने दिया। कालिदास के कुमार संभव से लेकर खजुराहो के मन्दिरों तक तथाकथित “अश्लीलता” बिखरी पड़ी है। और इतना पीछे जाने की भी ज़रूरत क्या है? सभी शिव-मन्दिरों में शिवलिंग पूजा जाता है। पर वहां कहीं भी आस्था आहत नहीं होती। ग़रीबी-रेखा से नीचे रहने वालों में हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी। जब केन्द्र सरकार उनके लिये सस्ते अनाज का मासिक आवंटन 35 किलो से घटा कर 25 किलो कर देती है तब भी किसी की भावनायें आहत नहीं होतीं। इसी तरह सच्चर कमीशन की रिपोर्ट में देश के अधिकांश मुस्लिमों की दयनीय आर्थिक-सामाजिक दशा के प्रमाण मिलने से भी “इस्लाम” ख़तरे में नहीं पड़ता। इस्लाम के ये तथाकथित ठेकेदार उस समय कहां दुबक गये थे जब गुजरात में निरीह मुस्लिमों का नरसंहार हो रहा था? हुसैन कैसे चित्र बनाते हैं या कैसे चित्र बनायें इस बात का फ़ैसला चित्रकला मर्मज्ञों पर क्यों नहीं छोड़ा जा सकता? 95 साल के हुसैन को लगातार मिलती धमकियों के कारण अन्तोगत्वा अपना देश छोड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है? वो भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अश्लीलता के आरोप से बरी कर चुका है। इसी तरह तसलीमा नसरीन का लिखा अगर किसी को ग़लत लगता है तो उसी तरह लिख कर उनकी आलोचना/निन्दा/भर्त्सना क्यों नहीं की जा सकती? पर कला, साहित्य, संस्कृति फ़ासिस्टों के लिये आतँक फैलाने के बहाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। अभी भी समय है कि इस देश की मेधा-मनीषा आसन्न ख़तरे को पहचान कर उसके प्रतिकार के उपाय करे।

11 comments:

कडुवासच said...

.....चर्चित व्यक्तित्व !!!

उम्मतें said...

अमर ज्योति
फासिस्ट, तर्क करें... लिखने का जबाब लिखने से दें...ये कुछ ज्यादा ही उम्मीद नहीं कर रहे हैं आप ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

अली भाई अमर ज्योति जी ने ऐसी कोई उम्मीद तो नही की है। उन की उम्मीद तो जनतंत्र पसंद लोगों से है कि वे आसन्न खतरे को पहचानें।

संदीप said...

मैं द्विवेदी जी के बात से सहमत हूं।
मुझे नहीं लगता कि अमर जी को ऐसी कोई उम्‍मीद होगी....बल्कि यह एक तरह से फासिस्‍टों के तर्क न करने की प्रवृत्ति को भी एक्‍सपोज़ करता है...
बाकी अमर जी क्‍या सोचते हैं, इस बारे में वही ज्‍यादा बेहतर बता सकते हैं..

Dr. Amar Jyoti said...

भाई अली जी
फ़ासिस्टों से मैं कोई अपेक्षा नहीं रखता। मेरी अपेक्षा
बल्कि आग्रह तो प्रगतिकामी शक्तियों से है कि और अधिक संगठित, और अधिक सक्रिय हों। आज का कठोर यथार्थ तो यही है कि जनविरोधी फ़ासिस्ट ताकतें ही हमारा भी एजेण्डा तय करती हैं। आवश्यकता इस गतिरोध को तोड़ कर सकारात्मक
पहलकदमी करने की है।

उम्मतें said...

@ भाई अमर ज्योति
आपकी सदाशयता को लेकर कोई भ्रम नहीं है ! मेरी टिप्पणी को अन्यथा मत लीजिये ! टिप्पणी में उल्लिखित 'उम्मीद' संदर्भित पैराग्राफ के प्रश्नवाचक चिन्ह से वाबस्ता है और व्यंगात्मक लहज़े में कही गई है !

"अन्तोगत्वा अपना देश छोड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है? वो भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अश्लीलता के आरोप से बरी कर चुका है। इसी तरह तसलीमा नसरीन का लिखा अगर किसी को ग़लत लगता है तो उसी तरह लिख कर उनकी आलोचना/निन्दा/भर्त्सना क्यों नहीं की जा सकती ? "

मेरे लिये आपका नज़रिया बेहद साफ है और आपकी अपील भी !

"पर कला, साहित्य, संस्कृति फ़ासिस्टों के लिये आतँक फैलाने के बहाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। अभी भी समय है कि इस देश की मेधा-मनीषा आसन्न ख़तरे को पहचान कर उसके प्रतिकार के उपाय करे। "

@ भाई दिनेश जी / भाई संदीप जी
मेरा मंतव्य भी वही है! छोर शायद दूसरा पकड़ा !

Anonymous said...

Sandeep Bhaai...

In theekedaaron kaa mantavya bas lime light me aanaa hai.. isliye inhe is baat se farq nahee padtaa ki jhuggee me rah rahee ek ghareeb aurat ke paas pahanne ke liye kapde naheen hai... lekin is bat se zaroor farq padtaa hai ki saaniyaa skirt kyun pahantee hai.. inhe is bat se matlab naheen ki ye shankar ke ling ko baaqaaydaa haathon se poojte hain lekin inhe is baat se farq padtaa hai ki husain saahab kaisi paintings banaa rahe hain... sab jhoothe aur makkaar hain.... dharm ke theekedaar hote to phir bhi sah letaa...

Anonymous said...

तर्क तकलीफ़ पैदा करता है...

अंकित कुमार पाण्डेय said...

chunauti tarkoon ki aur bay tippadiyoon se .....hahahaha

अर्कजेश said...

तस्लीमा नसरीन इन लोगों के गले की फांस बन रही हैं । क्योंकि यदि ये लोग तस्लीमा का समर्थन करते हैं तो इनके साथ्ा चलने वाली भीड इनका साथ छोडती है ओर यदि नहीं करते तो इनका अब तक धारण किया हुआ नारी मुक्ति के सूत्रधार का मुखौटा खिसकता है । इसलिए तस्लीमा को ये लोग गलत ढंग से पेश कर रहे हैं , किसी से तुलना कर रहे हैं या उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं । इस मामले में नारीवादी और कथित सेक्युलर दोनों मौन साधे हुए हैं ।

मुस्लिम कट्टरपंथियों की वजह से तस्लीमा को देश छोडना पडना और हिंदू कट्टरपंथियों की वजह से हुसैन को लेकिन दोनो तरह के कट्टरपथियों ने हराया तो लोकतत्र को ही । ...

अब ये लोग अभिव्यक्ति की आजादी को उन्मादी रंग देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं । हुसैन और तस्लीमा के पक्ष विपक्ष में लोगों को बॉटकर दोनों की छीछालेदर कर रहे हैं । और अभिव्यक्ति के उद्देश्यों को अविश्वसनीय , छिछला और व्यर्थ साबित कर रहे हैं ।

अमरनाथ 'मधुर'امرناتھ'مدھر' said...

तसलीमा नसरीन के पक्ष में लिखने के लिए मेरे वामपंथी साथी मेरी काफी फजीहत कर चुकें हैं | मैंने केवल तसलीमा नसरीन के अभिव्यक्ति के अधिकार की वकालत की थी लेकिन उसके विरुद्ध उनके कुतर्क भी दक्षिणपंथियों जैसे ही हैं |