तरुण विजय क्यों मान गये कि आरएसएस
एक हिन्दू दक्षिणपन्थी संगठन है?
आर एस एस मुखपत्र ‘पाँचजन्य’ के भूतपूर्व संपादक तरुण विजय (उन्होंने दो दशक से भी अधिक समय तक इसका संपादन किया था) का एक लेख 29 अप्रैल 2009 के ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विचारधारा पर चर्चा की थी। यह लेख ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ के स्तर के उपयुक्त नहीं था। एक सामान्य पाठक के लिये तो इसमें यह भी स्पष्ट नहीं हो पाता कि आख़िर वो कहना क्या चाहते हैं। इतिहास की गलियों में भटकते-भटकते वे वर्तमान की चर्चा करने लगते हैं पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते। उनका परिचय डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान(एक संस्थान जिसका अपेक्षित और स्वघोषित लक्ष्य है संघ परिवार के वैचारिक संघर्ष को दिशा और नेतृत्व प्रदान करना) के निदेशक के रूप में दिया गया है। अतः जो कुछ भी वे लिखते या कहते हैं उसे संघ परिवार का आधिकारिक दृष्टिकोण माना जा सकता है। उपरोक्त लेख में उन्होंने कहा कि
भारतीय राजनीति में सिर्फ़ दो ही विचारधारायें हैं: एक, हिन्दू दक्षिणपन्थ(अर्थात भाजपा सहित पूरा संघ परिवार) और वाम। इस कथन ने इतिहासकारों, समाज विज्ञानियों, और वाम रुझान वाले राजनीतिक टिप्पणीकारों को भी अचम्भित कर दिया। वे तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि आर एस एस यह कबूल कर लेगा कि वह एक हिन्दू दक्षिणपन्थी संगठन है। एक मामूली स्नातक, अख़बार का एक आम पाठक भी यह जानता है कि ‘हिन्दू दक्षिणपन्थ’ का अर्थ है फ़ासीवाद का हिन्दू संस्करण। यह पारिभाषिक शब्द संघ परिवार के प्रति घृणा व्यक्त करने के लिये ही प्रयुक्त होता है। सुमित सरकार, तूलिका सरकार, डी एन झा, रोमिला थापर, रामचन्द्र गुहा या क्रिस्टोफ़र जेफ़लो आदि इस शब्द का प्रयोग आर एस एस और इसके विचारधारात्मक परिवार की कथित अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति और विचारधारा, निरंकुशतावाद और धर्मनिरपेक्षता-विरोधी परम्परा की ओर संकेत करने के लिये करते हैं। तरुण विजय सगर्व यह दावा करते हैं कि कि संघ एक हिन्दू दक्षिणपन्थी आन्दोलन है। इस और ध्यान दिलाने पर तो आर एस एस के इतिहासकार भी चकित रह गये। पर अब बहुत देर हो चुकी है। उनमें से एक ने कहा कि तरुण इसके निहितार्थ से बिलकुल अनभिज्ञ हैं। वे कोई राजनीति विज्ञानवेत्ता नहीं हैं अतः उन्होंने भूलवश आर एस एस के लिये हिन्दू दक्षिणपन्थी शब्द लिख दिया। एक अन्य ने कहा कि उनका “प्रेतलेखक” संभवतया कोई भूतपूर्व वामपन्थी है जो इस शब्द का निहितार्थ नहीं समझ सका। एक इतिहासविद और स्तम्भकार ने कहा “उन लोगों से पूछिये जिन्होंने उन्हें निदेशक बनाया है”; उनका तात्पर्य भाजपा नेतृत्व से था। ये आर एस एस का बौद्धिक दिवालियापन है या फिर लोकतन्त्र से उसका मोहभंग? अब से सारी दुनिया के टीकाकार और समाजविज्ञानी तरुण विजय का हवाला देते हुए आर एस एस को एक फ़ासिस्ट संगठन मानेंगे। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया का प्रसार और विश्वसनीयता दोनों ही बहुत व्यापक हैं। इसके आलेख दूर-दूर तक पढ़े और उद्धृत किये जाते हैं। इसी वजह से एक हिन्दू दक्षिणपन्थी संगठन के रूप में आर एस एस का नया अवतार उसके लिए राजनीतिक रूप से ख़तरनाक होगा।
7 comments:
चलिए यह भी हुआ...
चलिये स्वीकार तो किया !
हर रोज कुछ नयै होता है। चलिये आज से आर एस एस के बारे में यह नई विचारधारा का उदभव भी हुआ।
यह तो होना ही था।
sorry baba... tongue slip, nahin nahin pen slip ho giya.. aap to pichhe hi parh jaate ho... [:)]
nice
akhir maan hi gaye
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