1.
आशवित्ज़ के बाद
कविता संभव नहीं रह गयी थी.
इसे संभव बनाना पड़ा था
शांति की दुहाई ने नहीं,
रहम की गुहारों ने नहीं,
दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं,
कविता को संभव बनाया था
न्याय और मानवता के पक्ष में खडे होकर
लड़ने वाले करोडो नें अपने कुर्बानियों से.
लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल
जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ
और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने.
गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं.
उसे संभव बनाना होगा.
कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई
होगी कविता के प्रदेश के बाहर.
हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से
बचने के लिए देश से बाहर
देश-देश भटकने या कहीं और किसी गैर देश की
सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से
बेहतर है अपनी जनता के साथ होना
और उन्हें याद करना जिन्होंने
जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए
कूच किया था अपने-अपने देशों से
सुदूर स्पेन की ओर.
कविता को यदि संभव बनाना है २००२ में
गुजरात के बाद
और अफगानिस्तान के बाद
और फिलिस्तीन के बाद,
तो कविता के प्रदेश से बाहर
बहुत कुछ करना है.
चलोगे कवि-मित्रो,
इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ?
2.
भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अन्धकार।
यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है।
यूँ संसद में आता बसन्त
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार।
इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास।
रचनाकाल : अप्रैल, 2002
- कात्यायनी
1 comment:
इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास।...
कात्यायनी सीधा मारती हैं...
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