महताब आलम
“जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं
छोडतें.एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज
की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं. हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही
अनुभव है.22-23मई सन 1987की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव
से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर
रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर
किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है,” ये कहना है महात्मा गाँधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति एवं गाजियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूति नारायण राय का. उस रात, मेरठ शहर के हाशिमपूरा इलाके में उत्तर प्रदेश पीएसी के जवानों ने 42 मुस्लिमों की निर्मम हत्या कर दी थी.
कब कटेंगे अन्याय के लम्बे बरस ?
राय आगे कहते है,”उस रात द्स-साढे दस बजे हापुड़ से वापस लौटा था.साथ
में जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी भी थे, जिन्हें उनके बँगले पर उतारता
हुआ,मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा.निवास के गेट पर जैसे ही कार की
हेडलाइट्स पड़ी मुझे घबराया हुआ सब इंसपेक्टर वीबी सिंह दिखायी दिया,जो उस
समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था.मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में
कुछ गंभीर घटा है. मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर
गया.
वीबी सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता
पाना संभव नहीं लग रहा था.हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ
मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था.मेरी समझ में आ गया कि उसके
थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया
है, इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें
भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते,पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और
घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुयें
हैं”.
तारीख पर तारीख
22 मई 1987 को जो मुकदमा गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर
दर्ज कराया गया था. पहले तो कई सालों तक यूँ ही बंद रहा और उस पर कोई
कार्रवाई नहीं हुई. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लगातार कोशिशों के बावजूद
भी जब मुकदमे की कार्रवाई शुरू नहीं हुयी तो उच्चतम न्यायालय में केस को
दुसरे राज्य में स्थानान्तरित करने कि याचिका दायर की गई. 2002 में,
उच्चतम न्यायालय के आदेश पर मुकदमे को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में
स्थानान्तरित कर दिया गया. लेकिन उससे भी बात नहीं बनी क्योंकि
उत्तरप्रदेश सरकार ने केस लड़ने के लिए कोई वकील ही नहीं नियुक्त
किया.नरसंहार के बीस
वर्षो बाद जब 24 मई 2007 को सूचना के अधिकार के तहत ये पता किया गया कि
उस घटना के आरोपियों के साथ क्या हुआ तो डीजीपी कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट
में कहा कि सब के सब आरोपी अभी भी नौकरी में बने हैं और यही उनकी सर्विस
डायरी में ऐसी किसी घटना का उल्लेख तक नहीं है. पिछले 24 वर्षों से विभिन्न
बाधाओं से टकराते हुये अभी भी मामले अदालत में चल रहें हैं और अपनी
तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं.
कब मिलेगा न्याय ?
वो तार्किक परिणति कब आएगी, को जानने के लिए मैंने इस मामले के वकील
अकबर अबिदी को फोन किया तो उनका जवाब था. “अगली तारीख, 30 मई को है.”
दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में इस मामले को देख रहे अकबर अबिदी ने बताया
कि मुक़दमा अभी किसी परिणति पर पहुँचने के लिए बाकी है. ज्यादातर
गवाहियाँ हो चुकी है. इस मामले में लगभग 140 गवाह थे, जिसमे पिछले 24
वर्षो में 20 की मौत हो चुकी. इसी दौरान 19 आरोपियों में से 3 आरोपी भी मर
चुके हैं. अबिदी ने आगे कहा कि अगले कुछ महीनों मुकदमे का फैसला सुना
दिया जायेगा.
हाशिमपुरा कि घटना, भारतीय इतिहास में कोई मामूली घटना नहीं थी. एक रात
में, एक ही जगह के, एक ही समुदाय के 42 लोगों को मौत के घाट उतर दिया गया
था. और ये सब किसी किसी आम व्यक्तियों के गिरोह ने नहीं किया था बल्कि उन
लोगों ने किया था जिन पर जनता के रक्षा की जिम्मेवारी है. इस घटना ने पूरे
भारत के नागरिकों, खासतौर पर मुसलमानों का दिल दहला दिया था, लेकिन
विडम्बना ये है कि आज इस घटना के 24 साल गुज़र चुके हैं. गवाहियों पर
गवाहियों हो चुकी है.कितने लोग न्याय का आस लिए इस दुनिया से गुज़र चुके
हैं.गवाहों के बाल सफ़ेद हो चुके हैं. देश की जनता भूल चुकी है और
हाशिमपुरा के लोग भी,खास तौर पर नई पीढ़ी भूलने जा रही है.लेकिन नतीजा वही,
तारीख पर तारीख. क्या हमारे देश में न्याय का यही भविष्य है ?
महताब आलम |
(महताब आलम मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
5 comments:
वक़्त करवट लेगा...
जब तक फैसला आएगा हत्यारे पीएसी कर्मी शासकीय सेवा का पूरा सुख भोग चुके होंगे ! इसके बाद अपील दर अपील फिर जीते जी सजा कौन भोगेगा ?
न्याय प्रणाली का विलंबित ताल में बजना समझ में आता है पर सरकारी एजेंसियों का साम्प्रदायिकता में लिप्त होना ?
आप लोगों ने रामलीला मैदान की बर्बरता के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा ????केवल इस लिए की वहां घायल होने वाले भगवाधारी थे या भगवा में आस्था रखते थे ???
5 JUNE रामलीला मैदान :एक छिपा हुआ सत्य एक प्रत्यक्षदर्शी के शब्दों में
मित्र दिल्ली पुलिस की कार्रवाही अमानवीय थी, पर इससे बाबा जी सही साबित नही हो जाते।
http://navkislaya.blogspot.com/
अरे अरे अंकित ये क्या है !!!!!!
http://swachchhsandesh.blogspot.com/2011/04/non-veg-therealscholar.html
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