टी.आर. अंध्याराजन
(5.10.2010 के 'द हिंदू' से साभार)
अगर मस्जिद ढहाई नहीं गयी होती, तब भी क्या न्यायालय ने विवादित स्थल का विभाजन और बंटवारा इसी ढंग से करने का निर्देश दिया होता?
6 दिसंबर 1992 को मस्जिद ढहाने की बर्बर घटना की निन्दा न करना अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले का एक उल्लेखनीय पहलू है।
1994 के अपने फैसले में में सर्वोच्च न्यायालय ने विध्वंस का जिक्र करते हुए कहा था कि: ''थोड़े से समय में, पूरा ढांचा ध्वस्त कर दिया गया। वास्तव में, यह 'राष्ट्र को शर्मसार' कर देने वाली घटना थी। ढहायी गई इमारत न केवल एक प्राचीन ढांचा था, बल्कि न्याय और बहुसंख्यक आबादी की निष्पक्षता के अर्थों में अल्पसंख्यकों के विश्वास को भी उसके साथ ढहा दिया गया। इसने कानून के शासन और संवैधानिक प्रक्रियाओं में उनकी आस्था को डगमगा दिया है। एक 500 वर्ष पुराना ढांचा जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता था और जिसकी हिफाजत करने का एक पवित्र भरोसा राज्य सरकार पर था, ढहा दिया गया।''
विध्वंस के मामले में सरकार की ओर से जारी एक श्वेत पत्र कहता है: ''6.12.1992 को अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद ढांचे का ढहाया जाना एक अत्यंत निन्दनीय घटना है। इसे अंजाम देने वालों ने नसिर्फ एक धार्मिक स्थल पर आक्रमण किया है, बल्कि हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता, जनवाद और कानून के शासन के सिद्धान्तों पर भी प्रहार किया है। एक अत्यन्त आकस्मिक और उतनी ही शर्मनाक चाल के द्वारा कुछ हज़ार लोगों ने सभी समुदायों के उन करोड़ों भारतीयों की भावनाओं को आहत किया है जो इस घटना से दुखी और निराश हैं।''
गुस्से की यह भावना इतनी गहरी थी कि प्रधान मन्त्री और केन्द्रीय सरकार ने 7 दिसम्बर 1992 और 27 दिसम्बर 1992 को कहा कि मस्जिद का पुनर्निर्माण करवाया जाएगा।
अयोध्या के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला 6 दिसम्बर 1992 का कोई जिक्र ही नहीं करता। दूसरी तरफ, वे विध्वंस को एक सिद्धकार्य समझते हैं, जैसे कि 2.77 एकड़ के विवादित स्थल पर कुछ रहा ही न हो। यह फैसला देने के बाद कि भूतपूर्व मस्जिद के मध्य गुम्बद के नीचे की जमीन हिन्दुओं को दी जानी चाहिए क्योंकि उनका विश्वास है कि वह भगवान राम का जन्मस्थान है, और राम चबूतरा और सीता की रसोई वाली जमीन निर्मोही अखाड़ा दी जानी चाहिए, न्यायालय ने विवादित स्थल की शेष जमीन को विभाजित करके, दो तिहाई हिन्दू वादियों को और एक तिहाई मुसलमान वादियों को माप कर देने का हुक्म दिया। इसलिए, ये फैसले, 1992 के विध्वंस को वैधता और कानूनी मान्यता प्रदान करते हैं, क्योंकि न्यायालय के फैसले का आधार यह है कि विवादित स्थल पर आज मस्जिद मौजूद ही नहीं है।
अदालतों में निर्णय करने का एक बुनियादी नियम यह है कि जब भी किसी मुकदमे का एक पक्ष मौजूदा परिस्थितियों को अपने लाभ की स्थिति में बदलने के लिए कानून अपने हाथ में लेता है, (जैसा कि 1992 के विध्वंस ने हिन्दू वादियों के पक्ष में किया) तो सर्वप्रथम अदालत पहले से मौजूद परिस्थिति को बहाल करने का आदेश देती है।
यदि ऐसा सम्भव न हो, जैसा कि वर्तमान मामले में, तो अदालत को यह देखना चाहिए कि किसी गैरकानूनी काम का लाभ ऐसा काम करने वाले को न मिले। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला न्याय के इस बुनियादी नियम की उपेक्षा करता है।
अदालत के फैसले के सही होने की जांच यह है: उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष को सही मानते हुए कि मस्जिद के मध्य गुम्बद के नीचे की जमीन भगवान राम का जन्मस्थान है या कि मस्जिद का निर्माण 1528 में एक मन्दिर के ध्वंसावशेष पर किया गया था, यदि मस्जिद ढहाई नहीं गई होती और स्थल पर मौजूद होती, तब भी क्या अदालत ने इसी रूप में विवादित स्थल के विभाजन और बंटवारे का निर्देश दिया होता? ऐसा केवल 500 वर्ष पुरानी मस्जिद को ढहा कर और उस स्थल को खाली करके ही किया जा सकता था - स्पष्टत: ऐसा निर्देश दे पाना असम्भव होता।
यदि ऐसा नहीं है, तो क्या अदालत मस्जिद के ढहाये जाने के गैरकानूनी कृत्य का लाभ उठाकर विवादित स्थल को इस प्रकार बॉंटने का आदेश दे सकती थी जैसा उसने किया है?
उच्च न्यायालय का बहुमत का फैसला अच्छी मंशा रखता है, और यह समझौते और राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए उठाया गया एक कदम है। यदि मुस्लिम समुदाय इस फैसले को इस रूप में स्वीकार करता है, तो इससे हमारे देश के एक ज्वलन्त साम्प्रदायिक मसले का समाधान होगा। हमें ऐसी परिणति की कामना करनी चाहिए। यदि इसके बिना अदालत के फैसले को स्वीकार किया जाता है, तो इससे मुस्लिम समुदाय में अन्दर ही अन्दर आक्रोश पनपेगा, क्योंकि वह इसे एक धार्मिक स्थल के विध्वंस को अदालत द्वारा माफ करने और जायज ठहराने के रूप में देखेगा।
(लेखक एक वरिष्ठ वकील और भारत के भूतपूर्व महाधिवक्ता हैं)
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