फैसला मस्जिद विध्वंस को नजरंदाज करता है

एस. इरफान हबीब 

किसी अन्य मुद्दे ने स्वतंत्र भारत को उतना परेशान नहीं किया है जितना अयोध्या विवाद ने। इसका परिणाम 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद ढहाये जाने के रूप में सामने आया था, जिसके बाद पूरे देश में हिंसा का तांडव हुआ। इसने लगभग अकेले ही 1990 के दशक के अंत में एक राजनीतिक दल को सत्ता तक पहुंचाया, और इस प्रक्रिया में सांप्रदायिक आधार पर देश का ध्रुवीकरण किया। शासन चलाने के नाम पर, अयोध्या के पैरोकारों ने मामले को दबा दिया और उसके विभिन्न पक्षों से अदालत के फैसले का इंतजार करने के लिए कहा। एक दशक से अधिक समय की शांति के बाद, यह हमें फिर सताने लगा है। अदालत ने अंतत: अपना निर्णय सुना दिया है, जिसे पूरे देश में संयम के साथ स्वीकार किया गया है। ऐसे जटिल मसले पर निर्णय देना अदालत के लिए आसान नहीं था। उसे तीन बुनियादी सवालों का जवाब देना था:
 1)क्या अयोध्या का विवादित स्थान ही भगवान राम का जन्मस्थान है 2)क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण राम मंदिर को ढहाने के बाद किया गया था 3)क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण इस्लाम के सिद्धांतों के आधार पर किया गया था
 इन सभी प्रश्नों पर इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं के साथ ही हिंदू और मुस्लिम नेताओं के बीच चर्चा और बहस हुई, लेकिन कोई स्वीकार्य समाधान नहीं निकला। 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने से पहले ही, मंदिर के मुद्दे को किसी भी तार्किक या वैज्ञानिक समाधान से परे ले जाते हुए संघ परिवार ने इसे आस्था का मामला बना दिया था। इस निर्णय ने भी मध्य गुंबद का स्थान मंदिर के लिए देकर आस्था के तर्क को वैधता प्रदान की है। हमें यह याद रखना चाहिए कि 400 वर्ष से भी पहले बनी बाबरी मस्जिद एक संरक्षित स्मारक थी। राज्य को उसका संरक्षण उसी प्रकार करना चाहिए था जिस तरह वह लाल किला और अन्य पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्मारकों का करता है। उसका ढहाया जाना राज्य द्वारा अपनी संपत्ति की सुरक्षा करने में विफल होना था। इस बर्बरता ने सभी भारतीयों को, हिंदू और मुसलमानों दोनों को ही, शर्मसार किया था। यह निर्णय बर्बरता के उस प्रश्न की अनदेखी करता है, और भविष्य में नए विवादों के पैदा होने की बुनियाद डालता है। 
यह निर्णय हमारे स्वतंत्रता संग्राम के बहुलवादी चरित्र की रक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण था। बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारत की विविधता और लोकतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर हमला था और इस निर्णय से हमारी आस्था को पुन:स्थापित किए जाने की आशा थी। इससे पहले कभी दोनों पक्षों के सर्वाधिक लड़ाकू तत्वों सहित हमारे समाज के सभी हिस्सों ने निर्णय के मद्देनजर बुद्धिमत्ता और संयम बरतने कीअपील नहीं की थी। इसका यह अर्थ नहीं है कि हाल ही तक एक दूसरे के विरोधी रहे ये लड़ाकू रातों-रात फ़ाख्तों में तब्दील हो गए थे। उन्हें उस उद्देश्य की निरर्थकता समझ में आ गई थी जिसके लिए वे लागों को भरमाकर इतने आक्रामक ढंग से लड़ रहे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक भारत को अब मध्ययुगीन कार्य के लिए आसानी से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। यहां तक कि बहुत से भारतीय इस मुद्दे से चिड़चिड़ाहट महसूस करते हैं और इससे ऊब चुके हैं और अब शांतिपूर्ण और संवैधानिक उपायों से इसका समाधान चाहते हैं। हालांकि, इस आरंभिक चरण में ऐसा लगता है कि यह निर्णय तीनों पक्षों के बीच जमीन को बांट कर इस मुद्दे को और जटिल बना रहा है। यहां तक कि इस निर्णय से अपनी विजय महसूस करने वाली पार्टी तक को यह लग रहा है कि मंदिर के लिए आवंटित जमीन पर भव्य राम मंदिर नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने पहले से ही अन्य दोनों पक्षों के साथ अदालत के बाहर समझौता करने के लिए बातचीत शुरू कर दी है। 
 यह निर्णय उस जगह पर रहने वाले लोगों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस शांत शहर में मंदिर आंदोलन के घुसपैठियों के हमले के बाद से उनका जीवन बदल गया था। उनींदी तीर्थनगरी को हिंदू वेटिकन, जैसा कि संघ परिवार के कई कार्यकर्ता उसे कहना पसंद करते थे, में बदलने के प्रयास स्थानीय निवासियों के लिए वरदान के साथ ही शाप भी थे। तीर्थयात्रियों की संख्या में तीव्र वृद्धि के कारण स्थानीय अर्थव्यवस्था में उछाल आया था। हालांकि, दिन-ब-दिन बढ़ते तनाव और असुरक्षा के एहसास से लोगों के जीवन और व्यवसाय पर प्रभाव पड़ा। वे सामान्य जीवन और व्यवसाय वापस चाहते थे। वे उस सौम्य भगवान राम की वापसी भी चाहते थे जिनका अपहरण वीएचपी और उसके सहयोगियों ने कर लिया था और उन्हें धनुष-वाण चलाने वाले आक्रामक राम में तब्दील कर दिया था। यह अब तक स्पष्ट नहीं है कि इस निर्णय से अयोध्या के लोगों को यह सब वापस मिला है या नहीं। इस निर्णय से पहले ही, वादियों ने उच्चतम अदालत में जाने के अपने इरादे की घोषणा कर दी थी। फिर भी, मौजूदा समय में यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने कुछ मसलों पर वैधानिक मोहर लगा दी है जो अब तक बहस और चर्चा के लिए खुले थे। यह फैसला महज एक आगे बढ़ा हुआ कदम है, परिणति लगता है अब भी बहुत दूर है।
 (लेखक राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय में मौलाना आज़ाद पीठ पर आसीन हैं) (1 अक्‍टूबर के इकोनॉमिक टाइम्‍स से साभार)

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