28 सितम्बर को अयोध्या विवाद को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यों वाली लखनऊ बेंच ने अपना फैसला सुना दिया। इस फैसले के मुताबिक इस बेंच के न्यायाधीशों ने 2:1 के बहुमत से यह तय किया कि अयोध्या की 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बाँटकर तीनों पक्षों को दे दिया जाएगा। यानी, एक-तिहाई भूमि हिन्दू पक्ष को,] एक-तिहाई भूमि निर्मोही अखाड़ा को और एक-तिहाई भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिलेगी। व्यावहारिक तौर पर, दो-तिहाई भूमि हिन्दू पक्ष को और एक-तिहाई मुसलमान पक्ष को मिली है। लेकिन जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद का मुख्य गुम्बद था, उसे हिन्दुओं को सौंपने का निर्णय किया गया है। उसे न्यायालय ने 2.1 के बहुमत से राम का जन्मस्थान माना है! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के साथ इस बात का प्रचार कर रहा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के आधार पर अदालत ने उस जगह को राम का जन्मस्थान माना है। लेकिन वास्तव में पुरातत्व विभाग की रपट ऐसा कुछ भी नहीं कहती है। उल्टे न्यायाधीशों ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से माना है कि वे उसे राम का जन्मस्थान इसलिए मान रहे हैं क्योंकि कई दशकों से हिन्दू उसे राम का जन्मस्थान मानते हैं। यानी निर्णय का आधार ऐतिहासिक और पुरातात्विक तथ्य नहीं, बल्कि धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को बनाया गया है। इस लेख में हम अयोध्या के फैसले और उसके बाद के घटनाक्रम पर अपना दृष्टिकोण रखेंगे।
दूसरा कारण: जनता के मूड के अतिरिक्त, यह देश के शासक वर्गों के हित में भी नहीं है। केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था जिसे टकसाली पत्राकार 'मण्डल पर मन्दिर के हावी होने' का नाम देते हैं। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आखि़री बात यह कि
क्यों नहीं भड़का इस बार कोई दंगा
इस फैसले के आने से पहले देश भर में सुरक्षा व्यवस्था को सरकार ने मज़बूत करने की कवायदें शुरू कर दी थीं। सभी जानते थे कि इस बार अयोध्या से जुड़े इस अहम मसले पर कोई दंगा भड़का पाना या देश में कोई उथल-पुथल पैदा कर पाना सम्भव नहीं है। अयोध्या के मसले पर जो अधिकतम धार्मिक ध्रुवीकरण किया जा सकता था वह 1990 से 1992 के दौर में भाजपा करके देख चुकी है। 1992 से लेकर 2010 के बीच सरयू में काफी पानी बह चुका है। अयोध्या को लेकर अब वैसी लहर पैदा कर पाना सम्भव नहीं था। इस बात को संघ गिरोह और भाजपा अच्छी तरह समझ रहे थे। इसीलिए फैसला आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक काफी सहिष्णु और उदार दिखने वाला बयान दिया और कहा कि यह किसी की हार या जीत नहीं है। लेकिन उसके साथ अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी विचारधारा को घुसेड़ने से भागवत बाज़ नहीं आए। उन्होंने कहा कि राम हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हैं और अब मुसलमानों को भी वैमनस्य भाव भुलाकर एक भव्य राम मन्दिर के निर्माण में सहयोग करना चाहिए। लेकिन इन सबके बावजूद यह सच है कि अब मन्दिर मुद्दे को लेकर कोई बड़ा खेल खड़ा कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। जनता संघ गिरोह के मन्दिर प्रेम को पिछले दो दशकों में अच्छी तरह से पहचान चुकी है। इसलिए ऐसे किसी भी मुद्दे पर वह ध्रुवीकृत होने नहीं जा रही है। संघ गिरोह के अतिरिक्त, सभी पार्टियाँ इस मुद्दे पर राजनीतिकरण के असंभाव्यता को अच्छी तरह भाँप चुकी थीं। इसीलिए लगभग सभी चुनावी पूँजीवादी पार्टियों की ओर से कमोबेश एक जैसे बयान आए जो देश की जनता से शान्ति बनाए रखने की अपीलें कर रहे थे। देश भर में सभी धर्मों के गुरू सद्भावना यात्राएँ आदि निकाल रहे थे और ऐसा लग रहा था कि देश धार्मिक सद्भाव और भाईचारे में डूब गया है। इसका कारण सिर्फ़ इतना था कि सारे पूँजीवादी मदारी समझ रहे थे कि इस बार इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल सम्भव नहीं है।दूसरा कारण: जनता के मूड के अतिरिक्त, यह देश के शासक वर्गों के हित में भी नहीं है। केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था जिसे टकसाली पत्राकार 'मण्डल पर मन्दिर के हावी होने' का नाम देते हैं। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आखि़री बात यह कि
देश के शासक वर्गों को ऐसे किसी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिलहाल कोई ज़रूरत भी नहीं थी। आप याद कर सकते हैं कि जब-जब मन्दिर विवाद को दंगे-फसाद में तब्दील कर जनता को बाँटा गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में कुछ साम्प्रदायिक फासीवादी तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था, बेरोज़गारी भयंकर रूप अख़्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी। 1990 के दशक की शुरुआत में जब मण्डल और मन्दिर दोनों का मुद्दा उछाला गया तो देश की अर्थव्यवस्था डाँवाडोल थी; देश का सोना गिरवी रखा जा चुका था; महँगाई आसमान छू रही थी; बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और ग़रीबी से देश की जनता में भयंकर गुस्सा था। ये सारे मौके ऐसे थे, जिसमें शासक वर्गों को इस बात की दरकार थी कि जनता का ध्यान उन वास्तविक मुद्दों से हट जाये जिनका उसकी ज़िन्दगी पर असर पड़ता है। इसके लिए धार्मिक उन्माद और जातिगत वैमनस्य के कार्ड का अलग-अलग समय पर इस्तेमाल किया गया। इस बार अयोध्या पर न्यायालय का फैसला आने से पहले ऐसी कोई संकट की स्थिति नहीं है।
हालाँकि, अभी वैश्विक आर्थिक संकट के झटके आने जारी हैं, लेकिन वैश्विक वित्तीय बाज़ार से कम समेकित होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर उसका असर तात्कालिक तौर से विनाशकारी नहीं है। पिछले दो कार्यकाल से संप्रग सरकार स्थिरता के साथ काबिज़ है और उसे फिलहाल कोई ख़तरा दिखलाई नहीं पड़ रहा है। दिक्करतें तो हैं लेकिन कोई संकट सामने मुँह बाए नहीं खड़ा है। ऐसे में शासक वर्गों को धार्मिक उन्माद के रास्ते जनता का ध्यान भटकाने और ध्रुवीकरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उल्टे इससे नुकसान हो सकता है। इसी समय राष्ट्रमण्डल खेल चल रहे हैं, जिसके जरिये देश की नेताशाही-नौकरशाही और पूँजीपति वर्ग अरबों रुपये पीट चुके हैं और इसके बाद विदेशी निवेश के लिए दिल्ली को पेश करने की पूरी तैयारी है। ऐसे में कोई भी दंगा विदेशी निवेश को हतोत्साहित कर सकता है। मौजूदा वैश्विक संकट के आने को अधिकतम सम्भव टालने के लिए देशी पूँजीपति वर्ग को इस निवेश की निरन्तरता की आवश्यकता है। इसमें वह कोई भी बाधा नहीं चाहता है। इस तरह हम देख सकते हैं कि शासक वर्ग को मन्दिर मुद्दे पर ध्रुवीकरण की कोई ज़रूरत नहीं थी।
उपरोक्त तीन कारणों के चलते इस बार मन्दिर मुद्दे पर कोई दंगा-फसाद भड़कने का काम नहीं हुआ।
अब इस फैसले पर भी एक निगाह डाल ली जाय। इस फैसले पर मीडिया लोटपोट हो गया है। वह इसे भारतीय सेक्युलरिज़्म और लोकतन्त्र की विजय बतला रहा है। जाहिर है, मीडिया अपना फर्ज़ अदा कर रहा है। पूँजीवाद के पक्ष में जनता की आम राय बना रहा है। अब यह एक दीगर बात है कि वह जो बोल रहा है, सच्चाई उसके बिल्कुल विपरीत है! चूँकि फैसले में विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बाँटकर सभी पक्षों को देने की बात की गयी है, इसलिए इसे एक ऐसे फैसले के रूप में देखा जा रहा है जो साम्प्रदायिक भाईचारे को बनाये रखने के लिए दिया गया है और यह भी कहा जा रहा है कि इससे धार्मिक वैमनस्य का ख़ात्मा होगा। लेकिन वास्तव में यह फैसला बहुसंख्यावादी, अतार्किक और साम्प्रदायिकता के पक्ष में जाकर खड़ा होता है। वास्तव में, यह बाबरी मस्जिद ढहाने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताक़तों को वस्तुगत तौर पर सही ठहराता है और दोषमुक्त करता है। अनकहे तौर पर यह फैसला कहता है कि चूँकि एक हिन्दू धार्मिक स्थल के खण्डहर पर मस्जिद का निर्माण किया गया था, इसलिए मस्जिद को ढहाना सही था। इस पूरे फैसले में बाबरी मस्जिद को फासीवादी भीड़ द्वारा ढहाये जाने की निन्दा या भर्त्सना कहीं भी नहीं की गयी है। यह अपने आप में कई बातों को स्पष्ट कर देता है। आइये, अब इस फैसले के सभी पहलुओं पर एक नज़र डालें।
अयोध्या पर फैसला देने वाली इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के तीन सदस्य थे: जस्टिस ख़ान, जस्टिस अग्रवाल और जस्टिस शर्मा। जस्टिस ख़ान ने अपने निर्णय में कहा कि बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मन्दिर को ढहाया नहीं गया था, हालाँकि जिस जगह पर उसे बनाया गया वहाँ किसी हिन्दू पूजा स्थल का खण्डहर था। पहले हिन्दू यह मानते थे कि जिस पूरे परिसर में मस्जिद है वहीं कहीं राम का जन्म हुआ था। लेकिन 1949 के कुछ दशक पहले से ही यह बात की जाने लगी कि राम का जन्मस्थल मुख्य गुम्बद के नीचे है। उसके बाद से यह एक संयुक्त पूजा स्थल बन गया जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अपनी पूजा और नमाज़ करते थे। इसीलिए इसे तीन हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए।
जस्टिस अग्रवाल ने कहा कि इस बात का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि बाबर द्वारा या उसके तहत किसी मस्जिद का निर्माण करवाया गया था। बस इतना दावे से कहा जा सकता है कि 1776 के पहले से मस्जिद वहाँ मौजूद थी। इसके अतिरिक्त, रामलल्ला की मूर्तियाँ इस ढाँचे के भीतर प्रकट नहीं हुई थीं, बल्कि उन्हें वहाँ 23 दिसम्बर 1949 को रखा गया था। जस्टिस शर्मा का कहना था कि वहाँ पर मस्जिद का निर्माण इस्लाम के सिद्धान्तों का उल्लंघन करके किया गया था और जिस ढाँचे को गिराया गया उसे मस्जिद माना ही नहीं जा सकता है। कुल मिलाकर, पूरी बेंच ने यह निर्णय दिया कि पूरी विवादित ज़मीन को हिन्दू पक्ष, मुसलमान पक्ष और निर्मोही अखाड़े के बीच तीन बराबर-बराबर हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए और बेंच ने 2:1 के बहुमत से यह माना कि चूँकि हिन्दू राम के जन्मस्थान को मुख्य गुम्बद के नीचे मानते हैं इसलिए मुख्य गुम्बद के नीचे वाली जगह को हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए।
अगर इस फैसले पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि इस फैसले ने मस्जिद गिराए जाने के कृत्य को पूरी तरह से दोषमुक्त कर दिया है। पूरे फैसले में एक जगह भी उस साम्प्रदायिक फासीवादी भीड़ और भगवा गिरोह के सरगनाओं की निन्दा नहीं है या उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है जिन्होंने उस ऐतिहासिक इमारत को सारे मीडिया और सशस्त्र बलों के सामने मिट्टी में मिला दिया।
दूसरी बात, जो भारतीय न्यायपालिका के सेक्युलर चरित्र पर सवालिया निशान खड़ा करती है वह है इस फैसले में पुरातात्विक प्रमाणों की जगह बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की आस्था को महत्व देना। वैसे इस बात का जमकर प्रचार किया जा रहा है कि दो न्यायाधीशों ने गुम्बद के नीचे के स्थान को राम का जन्मस्थान करार दिया है, लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि इसके लिए पुरातत्व विभाग की पूरी रिपोर्ट को आधार नहीं बनाया गया है, बल्कि हिन्दुओं की आस्था को आधार बनाया गया है। धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को एक न्यायिक निर्णय का आधार बनाया गया है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी.एन. झा कहते हैं कि एक न्यायिक निर्णय में आस्था को स्थान देने का कोई अर्थ नहीं है। यह पुरातत्वशास्त्र का मसला था, धर्मशास्त्र का नहीं। और अगर धार्मिक आस्था के आधार पर ही निर्णय देना था तो न्यायपालिका ने पुरातत्व विभाग को वहाँ खुदाई करने का आदेश क्यों दिया। पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट बताती है कि जिस जगह पर मस्जिद थी वहाँ पहले किसी हिन्दू पूजास्थल के अवशेष थे। लेकिन यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि वह कोई मन्दिर था या किसी घर के अन्दर का पूजा-स्थल। दूसरी बात, संघ के भोंपू यह क्यों नहीं बताते कि उसी पुरातात्विक स्थल से कब्र और हड्डियाँ भी मिली हैं। अब किसी मन्दिर के भीतर कब्र या हड्डी का कैसा अस्तित्व इसलिए यह भी दावे से कह पाना मुश्किल है कि वहाँ कोई पूजा स्थल था भी या नहीं। या फिर वह किसी मिश्रित रिहायश की जगह थी जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही रहते थे और इसीलिए दोनों की रिहायश के प्रमाण मिल रहे हैं। दो न्यायाधीशों ने पुरातत्व विभाग की रपट के कुछ अपने मन से चुने के गये हिस्सों के आधार पर फैसला सुना दिया कि रामलल्ला का जन्मस्थान गुम्बद के नीचे है। यह पूरे निर्णय की निष्पक्षता पर संगीन सवाल खड़े करता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पुरातत्ववेत्ता सुप्रिया वर्मा जो कि उस टीम की प्रेक्षक थीं जिसने बाबरी मस्जिद वाली जगह की खुदाई की, कहतीं हैं कि न्यायाधीशों ने पुरातत्व विभाग के नतीजों का इस्तेमाल नहीं किया है। वे कहती हैं कि ऐसा लगता है कि न्यायाधीश स्वयं ही पुरातत्व विभाग की खोज से सन्तुष्ट नहीं थे। भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल टी. आर. अंध्यारुजीना ने फैसले की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए कहा कि ज़मीन के बँटवारे का सवाल ही नहीं उठता अगर मस्जिद को ढहाया नहीं गया होता। मस्जिद ढहाए जाने से पहले से यह मुकदमा चल रहा था। इसलिए कोई फैसला तब तक नहीं दिया जा सकता था जब तक कि यथास्थिति को बहाल नहीं किया जाता, जिसे साम्प्रदायिक भीड़ ने संघ के नेतृत्व में बिगाड़ डाला था। यानी कि मस्जिद के गैर-कानूनी तरीके से गिराए जाने पर फैसला दिये बगै़र ज़मीन के बँटवारे का सवाल ही नहीं पैदा होता है।
स्पष्ट है कि यह फैसला पुरातात्विक प्रमाण को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को ध्यान में रखकर दिया गया है। यह भारतीय न्यायपालिका की धर्मनिरपेक्षता पर गहरा सवाल खड़ा करता है।
फैसले का विश्लेषण
हमारा दृष्टिकोण
जहाँ तक एक सही सर्वहारा दृष्टिकोण का प्रश्न है हमें इस सवाल के जाल में फँसना ही नहीं चाहिए कि राम थे या नहीं\ अगर थे तो उनका ठीक-ठीक जन्मस्थल कहाँ है\ बाबरी मस्जिद मन्दिर को तोड़कर बनी थी या नहीं\ क्योंकि ऐसे सवाल वास्तव में सवाल हैं ही नहीं। वास्तव में अगर इनको सवाल माना जाये तो हिन्दू साम्प्रदायिक ताक़तों के तर्कों पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं। तमाम हिन्दू मन्दिर बौद्ध पूजा स्थलों को तोड़कर बनाये गये। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि अयोध्या में ही ऐसे तमाम मन्दिर मौजूद हैं जो बौद्धों का नरसंहार करके और फिर उनके पूजा स्थल को तोड़कर बनाये गये। तो क्या अब उन मन्दिरों को तोड़कर फिर से बौद्ध पूजा स्थलों को बनाया जाना चाहिए\ अयोध्या में ही ऐसे कम से कम एक दर्ज़न मन्दिर हैं जो यह दावा करते हैं कि वास्तव में वे राम का जन्म स्थल हैं। उनका क्या जवाब होगा\ आज ऐसी तमाम मस्जिदें मौजूद हैं जो शायद हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़कर या उनके अवशेष पर बनीं। तो क्या उन सबको तोड़कर वहाँ फिर से मन्दिर बनाया जाय?
हम देख सकते हैं कि सवाल वास्तव में यह है ही नहीं। इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हों] जहाँ की आधी बच्चों की आबादी कुपोषित हो] जहाँ 28 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों] जहाँ 36 करोड़ लोग या तो बेघर हों या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रहे हों] जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर पाशविक जीवन जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों] और जहाँ समाज जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है\ वहाँ इतिहास के सैंकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हो\ और अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के सुदूरतम इतिहास तक को देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने किस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनाएँगे\ इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पश्चगामी और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताक़तें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे भी इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उसकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में है, जिसके बारे में अभी दावे से कहा भी नहीं जा सकता है, कि वह हुआ था या नहीं। साम्प्रदायिक फासीवाद ऐसी ही एक ताक़त है और आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फायदा उठाते हुए वे उसे धार्मिक तर्क के आधार पर विभाजित कर देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा सिद्ध होता है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक विचारणीय हिस्से को एक ऐसे सवाल पर ध्रुवीकृत कर देता है जो वास्तव में उसके लिए सवाल है ही नहीं।
हमें चाहिए कि हम एक सही वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हुए इन अनैतिहासिक और अतार्किक सवालों को दरकिनार करें और शासक वर्गों की साज़िश को समझें। वास्तव में आज की लड़ाई आज के अन्याय के ख़िलाफ़ है। आज का पूँजीवादी शोषण और अन्याय सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन है और हमारा पूरा संघर्ष उसके ख़िलाफ़ होना चाहिए। हमें साम्प्रदायिकता के झाँसे में आकर इस मन्दिर-मस्जिद की बहस में नहीं फँसना चाहिए। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियाँ, चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, सपा हो या बसपा, मन्दिर के मुद्दे के इर्द-गिर्द अपनी-अपनी तरह से जनता को बाँटना चाहती हैं। दरअसल, भारतीय आम जनता का एक बड़ा हिस्सा इस बात को समझने भी लगा है। यही कारण था कि इस बार इस मुद्दे पर कोई ध्रुवीकरण नहीं किया जा सका। लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर भी हमें समाज में लगातार इस प्रतिक्रियावादी सोच पर हमला करते रहना चाहिए जो इतिहास के काल्पनिक अन्यायों के लिए आज आम मेहनतकश जनता की बलि चढ़ाना चाहती है। यह सोच मज़दूर वर्ग और पूरे इतिहास की दुश्मन है।
4 comments:
आलेख बेहद चिंतनपरक है ! यहां उन्माद है ! भीड़ है फिर संविधान और २० रुपये रोजी वाले सर्वहारा की परवाह किसे है ?
वैसे ये तोता धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस के सौजन्य से पैदा हुआ , पाला पोसा गया और फासिस्टों ने मिर्चे खिला कर उड़ा दिया ! उसे पिंजड़े मे वापस कैद कर सकने वाली ताकते फिलहाल मजबूत नहीं हैं !
सही स्टैंड...
ashok ne budh ke janamsthan lumbni mein ek shilalekh lagwaya jis par likha tha budh is sthan par paida hue the lekin theek kis jagah paida hue wah bhi nahi bata paya tab agar mana jaye kiram ayodhya mein paida hue lekin thik usi jagah paida hue jhann masjid hai ye kaise bataya ja sakta hai
aur raha sawal ram ke hone ya na hine ka to koi bhi etihasik sachya isko pramadit nahi karte ye wampanthi itihaskar nahi balki khud bb lal ki report kahti hai
sushil sriwastav ki kitab se metter de
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