आज हम प्रसिद्ध सांप्रदायिकता विरोधी एक्टिविस्ट और आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी का लेख 'बर्बरता के विरुद्ध' पर दे रहे हैं। हालांकि, मैं श्री पुनियानी के सर्वधर्म सम्भाव वाले विचारों से सहमत नहीं हूं, और मेरा मानना है कि फासीवाद से लड़ाई के लिए धर्मनिरपेक्षता को सही अर्थों में स्थापित करना होगा, जोकि सर्वधर्म सम्भाव कत्तई नहीं होती। लेकिन ऐसे समय में जब इमरान हाशमी द्वारा अपने साथ भेदभाव किए जाने के आरोप के बहाने मुस्लिम आबादी के प्रति पक्षपात पर बहस चल रही हो, आम मुस्लिम आबादी के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार की बानगी पेश करता यह लेख कुछ सच्चाइयों पर प्रकाश डालता है।(हालांकि, इमरान हाशमी को गुजरात दंगों, मुंबई के दंगों में आम मुस्लिम आबादी के मारे जाने से कोई वास्ता नहीं होता, न ही उन्हें बहुसंख्यक मुसलमान आबादी के पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी की चिंता है। खैर, इस पर चर्चा फिर कभी...।) इस लेख का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद हमारे साथी कामता प्रसाद जी ने किया है। : बर्बरता के विरुद्ध
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सिमी के नाम पर
जुलाई (2009) के तीसरे हफ्ते में महाराष्ट्र पुलिस ने पुसाद, अकोला और आसपास के इलाकों से बहुत से मुसलमानों को इस आरोप में गिरफ्तार किया कि वे नये नाम के तहत सिमी को फिर से खड़ा कर रहे हैं। इस बात को हुए काफी अर्सा बीत चुका है जबकि हमने यह सुना था कि सिमी के नाम पर गिरफ्तारी हो रही है। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की मोटरसाइकिल के मालेगांव में पाये जाने के पक्के सबूत के साथ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी का पहले का चक्र टूटा था। मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी हरेक विस्फोट मसलन मालेगांव, हैदराबाद में मक्का मस्जिद, जयपुर और अन्य स्थानों के विस्फोट के बाद रोजमर्रा का मामला बन गया था। मोटरसाइकिल की कड़ी स्वामी दयानंद पांडेय, ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और आरएसएस विचारधारा के समर्थक या उससे प्रेरित दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े दूसरे बहुत से लोगों तक लेकर गयी थी।
बाबरी विध्वंस के पश्चात उनके द्वारा जारी पोस्टर की थीम भी यही थी। यह आरोप लगा कि सिमी के सिख एवं कश्मीरी उग्रवादियों के साथ संबंध हैं। यह आरोप लगा कि उसका ओसामा और आईएसआई के साथ संबंध है। इसी समय सिमी ने दावा किया कि वह शांतिपूर्ण तरीकों के जरिये काम करना चाहती है, जबकि खराब होती सांप्रदायिक स्थिति ने उसे यह कहने को मजबूर किया कि मुस्लिम शांति चाहने वाला समुदाय है। इन्हीं परिस्थितियों में 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सिमी पर प्रतिबंध को चुनौती दी गयी, अत: प्रतिबंध की समीक्षा करने के लिए पंचाट की नियुक्ति करनी पड़ी।
तहलका के अजित साही ने अपनी कष्टसाध्य खोजबीन में पंचाट की सभी सुनवाई का फॉलो-अप किया (तहलका, सिमी फिक्शंस, 12 अगस्त 2008)। पंचाट को संगठन पर प्रतिबंध लगाने के लिए उसके खिलाफ लगाये गये आरोपों का कोई साक्ष्य नहीं मिला। प्रतिबंध की पुष्टि नहीं की जा सकी। इस छानबीन के बारे में अजित साही ने कहा, ''उनकी छानबीन बेजान अदालती दस्तावेजों से उत्पन्न कोई नीरस स्टोरी नहीं है। यह दिल को झकझोर कर रख देने वाली स्टोरी है। मुश्किल से युवा लग रहे बच्चों के माथे पर नींदरहित रातों के कारण परेशानी छायी हुई है और वे पिता, भाई को जेल भेजे जाने की चिंता से ग्रस्त है। वे लगातार सोच रहे हैं, ''क्या इसका खात्मा होगा? क्या इसका कारण सचमुच में जायज है? अब मैं कहां जाऊं, क्या मैं इसे झेल पाऊंगा? वह आगे कहते हैं, ''मैंने ढेर सारे मुस्लिमों से बात की और मैंने खुद से हैरान होकर पूछा अगर यह सब मेरे साथ होता तो? मेरा भाई, मेरा बाप अगर जेल में होता तो?''
अमेरिकी मदद से पाकिस्तान में स्थापित मदरसों में प्रशिक्षित कट्टरपंथी इस्लामपंथियों की वजह से विश्व परिदृश्य इस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ होता जा रहा है और इसी के साथ ही जनमानस औसत मुस्लिम को आतंकवादी के रूप में देखता है और पुलिस मशीनरी इसी समझदारी पर काम करती है। यहां तक कि जब दर्जनों जीवन बर्बाद हो रहे थे और मुस्लिम समुदाय का अत्यधिक उत्पीड़न हो रहा था तो सरकार ने छानबीन के उस ढंग-ढर्रे को ठीक करने के लिए कुछ भी नहीं किया जिसका कि पुलिस अपने काम में अनुसरण कर रही थी।
इस स्थिति से व्यग्र होकर मानवाधिकार समूहों द्वारा दो जन पंचाटों की स्थापना की गयी। दो पंचाटों की रिपोर्ट और सिफारिशें एक जैसी हैं और दोनों में काफी कुछ एक समान हैं। पहले का नेतृत्व जस्टिस (सेवानिवृत्त) भार्गव और सरदार अली खान ने किया। असगर अली इंजीनियर और प्रशांत भूषण जैसे जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता उसकी जूरी में थे। गवाहियां दर्शाती हैं कि बड़ी संख्या में निर्दोष मुस्लिमों को पुलिस द्वारा इस आरोप के साथ निशाना बनाया गया कि वे देश-भर के विभिन्न आतंककारी कार्रवाइयों से सम्बद्ध हैं।यह खासकर महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और राजस्थान में हुआ, हालांकि यह इन्हीं राज्यों तक सीमित नहीं रहा। आतंककारी अपराधों की छानबीन की आड़ में मुस्लिमों का उत्पीड़न और उन्हें शैतान बनाकर पेश करने का बहुत ही गंभीर मनोवैज्ञानिक असर न केवल उनके परिवार के लोगों के ऊपर बल्कि समुदाय के अन्य लोगों पर भी पड़ा। यह असुरक्षा एवं अलगाव का गहरा बोध उनमें भरता जा रहा है जो कि देश के लिए डरावने परिणाम पैदा कर सकता है।
राजस्थान के संगठनों के भिन्न समूह द्वारा स्थापित दूसरे पंचाट ने जस्टिस (सेवानिवृत्त) भार्गव के नेतृत्व में काम किया। एक विचार-योग्य टिप्पणी यह थी कि आतंककारी अपराधों की छानबीन कर रहे पुलिस अधिकारियों ने छानबीन करने के दौरान देश के समस्त कानूनों एवं सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का उल्लंघन किया। खासकर, बहुत से लोगों की गिरफ्तारी दिखाये बगैर और उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये बिना कई दिनों या हफ्तों तक बंदी बनाकर रखा गया। पुलिस अधिकारियों ने उन्हें यातना दी और अपमानित किया। उन्हें अपने परिजनों एवं वकीलों से मिलने नहीं दिया गया। उनके परिजनों को यह खबर भी नहीं लगने दी गयी कि उन्हें बंदी बनाया गया है। पुलिस द्वारा विस्फोटों की छानबीन भी सांप्रदायिकता से प्रेरित जान पड़ती है और केवल मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले लोगों को ही छानबीन का निशाना बनाया गया।
एचयूजेआई और सिमी के नामों को पुलिस ने विस्फोटों को अंजाम देने वाले के रूप में उछाला पर बिना किसी सबूत और गवाह के। सिमी के अनेक पूर्व सदस्यों को बिना किसी आधार या साक्ष्य के गिरफ्तार किया गया और बंदी बनाया गया। मीडिया पुलिस के बयान को बार-बार दुहरा रहा था और मुस्लिम समुदाय से जुड़े लोगों एवं संगठनों के नाम को लोगों के सामने ला रहा था। इस प्रकार से हिंदुत्व संगठनों के द्वारा हिंदू समुदाय के दिलो-दिमाग में इस्लाम का भय पैदा किया जा रहा था।
इनमें से सैकड़ों लोगों को विस्फोटों के बाद उठा लिया गया और विधि-सम्मत प्रक्रिया अपनाये बिना और उन्हें अपनी भारतीय नागरिकता बताने का अवसर दिये बिना जबरिया न्यू जलपाईगुड़ी और फिर बांग्लादेश भेज दिया गया। इसका परिणाम जयपुर के नस्ली सफाये में सामने आया है।
हमें नहीं पता कि प्रशासन कितनी गंभीरता के साथ इस जन पंचाटों को लेता है लेकिन, तथ्य तो यह है कि उन्होंने समाज की ठोस वास्तविकताओं को सामने लाने का काम किया है। यह जरूरी है कि सरकार इन रिपोर्टों पर गंभीरतापूर्वक गौर करे और जांच अधिकारियों को अपनी पहुंच में और अधिक पेशेवर होने और अल्पसंख्यक समुदाय के साथ व्यवहार करते समय अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ देने का निर्देश दे।
6 comments:
सन्दीप भाई,
राम पुनियानी जी के लेख से थोड़ी बहुत सहमति है, लेकिन क्या किया जाये, असहमति का विवेक भी तो अपन के पास है ना! उनके लेख में ना जाने ऐसा क्युं लगा की वो कहीं वकालत तो कहीं बीच-बचाव कर रहे हैं.
bilkul samdeep bhai mai aap se sahmat hu
:)
आलेख हमें भी ज्यादा दमदार नहीं लगा ! धर्मनिरपेक्षता को लेकर राज्य के दोमुंहेंपन को उजागर करने वाली प्रविष्टि तो कतई भी नहीं !
वैसे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खडा हर व्यक्ति हमें अच्छा लेखक लगे या न लगे अच्छा इंसान तो लगता ही है !
आलेख में झोल तो है लेकिन सदाशयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना शायद उचित नहीं होगा !
lekhak khud uljhan meinhain simmi ko lekar .! confusion !
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