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यह पुस्‍तक भगवा आतंक के प्रमाण को बखूबी पेश करती है


 ए जी नूरानी

(साभार : फ्रंटलाइन)

पुस्‍तक समीक्षा 

गोडसेज़ चिल्‍ड्रेन

हिंदुत्‍व टेरर इन इंडिया


सुभाष गाताड़े

फ़रोज़ मीडिया, नई दिल्‍ली

400 पृष्‍ठ / रु 360


संघ परिवार की तमाम करतूतों में आतंक कभी भी अनुपस्‍थित नहीं रहा है। सांप्रदायिक दंगों में राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ की लिप्‍तता को जांच आयोगों ने बारंबार चिन्हित किया है। भगवा आतंक के हालिया उभार के बाद भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गयी बचाव की कोशिशों ने उसे पूरी तरह नंगा कर दिया है।
प्रशिक्षण से एक इंजीनियर और स्‍वतंत्र पत्रकार सुभाष गाताड़े ने सांप्रदायिकता और दलित मुक्ति के मुद्दों पर काफी कुछ लिखा है। उन्‍होंने भगवा आतंक के प्रमाण को एक किताब में समेटकर एक सेवा की है।
दस जनवरी को संघ के मुखिया मोहन भागवत ने सफाई देते हुए कहा कि ‘‘सरकार ने जिन लोगों पर आरोप लगाये हैं (विभिन्‍न बम विस्‍फोटों के मामलों में) उनमें से कुछ तो स्‍वयं संघ को छोड़कर चले गये थे और कुछ को संघ ने यह कहकर निकाल दिया था कि उनके चरमपंथी विचार संघ में नहीं चलेंगे।’’ ऐसे में यह उनका कानूनी दायित्‍व बन जाता है कि वह उन लोगों के नाम बतायें जिन्‍होंने या तो अपनी मर्जी से संघ को छोड़ा या जिनको संघ से चले जाने को कहा गया। इससे हम य‍ह जान सकते हैं कि पुलिस द्वारा दायर किये गये किन मुकदमों में इन ‘’पूर्व’’ संघ कर्मियों का नाम आता है।   
लेखक इस पुस्‍तक के केंद्र‍ीय बिंदु को बताते हुए कहते हैं, ‘‘ इस पुस्‍तक के अच्‍छे खासे हिस्‍से में हिंदुत्‍ववादी संगठनों द्वारा देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में की गयी आतंकी कार्रवाहियों की चर्चा की गयी है। यह बहुसंख्‍यकवादी आतंकी गिरोहों के व्‍यापक फैलाव के बारे में इंगित करती है जो किसी भी स्‍थान पर मनचाहे तरीके से हमला करने में सक्षम हैं और साथ ही साथ य‍ह पुस्‍तक यह भी स्‍पष्‍ट करती है कि यह अब महज़ क्षेत्रीय परिघटना नहीं रही है। दूसरे यह इन आतंकी गिरोहों की कार्रवाहियों में समानताओं को भी उजागर करती है। तीसरे यह जांच एजेंसियों के सामने आने वाली अत्‍यन्‍त चुनौतीपूर्ण जिम्‍मेदारियों को भी रेखांकित करती है क्‍योंकि उन्‍होंने अब तक अपने आप को बम रखने वाले व्‍यक्तियों और उनको शरण देने वाले और उनको वित्‍तीय व अन्‍य मदद करने वाले स्‍थानीय लोगों की धरपकड़ तक ही सीमित रखा है, जबकि इस आतंकी परियोजना के किसी भी मास्‍टरमाइंड, योजनाकर्ता, वित्‍तीय सहायककर्ता  और विचारक को पकड़ने में अभी तक नाकाम रही है’’।  
दो अध्‍यायों को छोड़कर जिनमें हिंदुत्‍व आतंक के वैश्विक आयाम और मोस्‍साद परिघटना की चर्चा है, पुस्‍तक का केंद्र बिंदु मुख्‍य तौर पर भारत तक ही सीमित है। ऐसे में जब विभिन्‍न हिंदुत्‍ववादी गिरोहों ने अन्‍तर्राष्‍ट्रीय नेटवर्क और संपर्क बना रखे हैं, जिनकी वजह से उनके कामों में कई किस्‍म की मदद मिल जाती है, इस परिघटना के इस पहलू पर और भी ज्‍़यादा ध्‍यान देने की ज़रूरत है। इसके अलावा हमें यह भी समझना होगा कि खुले आम राजनीतिक और सांस्‍कृतिक ग्रुपों के अतिरिक्‍त तमाम आध्‍यात्मिक गुरुओं ने थोक के भाव से अपने अंतर्राष्‍ट्रीय नेटवर्क खोले हैं और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि ऐसे ग्रुप सशस्‍त्र हिंदुत्‍व ग्रुपों से करीबी सम्‍बन्‍ध रखते हैं।

सोमवार को संजीव भट्ट की गिरफ्तारी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन

नई दिल्ली: गुजरात के डीआईजी रैंक पुलिस अधिकारी और गुजरात नरसंहार के मुख्य गवाह संजीव भट्ट की गिरफ्तार को लेकर सिविल सोसाईटी ऑर्गनाईजेशन, सिविल राईट्स ग्रुप और एक्टिविस्टों के बीच काफी रोष है. ऐसे में पूरे देश के एक्टिविस्टों और सिविल राइट्स ग्रुप्स ने सोमवार को भट्ट की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध में एक राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया है.
ANHAD, अखिल भारतीय सेकुलर फोरम और विभिन्न अन्य संगठनों द्वारा किए गए  अह्वान पर  इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी, बाराबंकी, झांसी, भोपाल, इंदौर, दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, भुवनेश्वर, पुणे, देहरादून, बंगलौर, बड़ौदा, जम्मू, श्रीनगर, चेन्नई, त्रिवेन्द्रम, हिसार, रोहतक, गोंडा और फैजाबाद के शहरों में इस विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया जा रहा है.

दिल्ली में भी संजीव भट्ट के इस गिरफ्तारी को लेकर एक विरोध-प्रदर्शन सोमवार, 3:30 बजे  गुजरात भवन के बाहर आयोजित करने का फैसला आज एक मीटिंग में लिया गया है. इस अवसर पर वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने इस गिरफ्तारी को असंवैधानिक करार देते कहा कि  "हम मोदी सरकार द्वारा संजीव भट्ट  की गिरफ्तारी की निंदा करते हैं. "    दिल्ली के सिविल राइट्स एक्टिविस्ट महताब आलम ने इस अवसर पर कहा कि   "हम संजीव भट्ट की तत्काल और बिना शर्त रिहाई की मांग करते हैं"  साथ ही उन्होंने न्याय व शांति प्रिय लोगों को बड़ी संख्या में इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की है. 
स्पष्ट रहे कि केवल संजीव भट्ट ही एक ऐसे पुलिस अधिकारी है, जिन्होंने मोदी के खिलाफ सबूत दिया है कि  मोदी 2002 के गुजरात नरसंहार में शामिल थे। 

अन्ना के आंदोलन का साम्प्रदायिक चरित्र


भँवर मेघवंशी
आजादी की कथित दूसरी लड़ाई के मीडिया जनित महानायक अन्ना हजारे के आंदोलन की रूपरेखा बनाने से लेकर उसके सफल प्रबंधन एवं उसमें सक्रिय भागीदारी करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका की पुष्टि हो चुकी है, इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी इस गांधीवादी आंदोलन के साम्प्रदायिक चरित्र पर चर्चा करना जरूरी हो गया है। कोई भी आंदोलन संख्या बल में कितना ही विशाल क्यों न हो, उसके पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही है तथा उनका मकसद क्या है, यह जाने बगैर उस आंदोलन का विश्लेषण अधूरा रह जाता हैं। कई दृष्टिकोणों और पहलुओं से अन्ना के अनशन व आंदोलन पर चर्चा की गई है, जैसे कि क्या यह गांधीवादी आंदोलन था? क्या यह पूर्णतः राजनीति निरपेक्ष आंदोलन था? क्या यह समाजवादी एवं लोकतांत्रिक आंदोलन था? क्या यह मीडिया द्वारा प्रायोजित था? क्या इसे कारपोरेट जगत ने वित्त पोषण दिया? क्या यह मात्र एक एनजीओ उपक्रम था? क्या यह पूरे भारत का आंदोलन था? इन सब बातों पर विस्तार से अलग-अलग लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए है, मुझे लगता है कि इस बात की चर्चा कम हुई है कि क्या यह आंदोलन धर्म निरपेक्षता के संवैधानिक मूल्यों पर टिका था अथवा किसी खास विचारधारा की ओर झुका हुआ था? विशेषतः संघ विचार परिवार की ओर ?

अन्ना आंदोलन के रणनीतिकार इस बात को सिरे से नकारते है कि उनका हिन्दुत्ववादी ताकतों से कोई सीधा संबंध है, लोगों ने उनकी बातों का भरोसा भी किया, लेकिन जो तथ्य और परिस्थितिजन्य साक्ष्य है, वे चीख चीख कर यह बता रहे है कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग व समर्थन पर ही टिका हुआ आंदोलन था, टीम अन्ना के सदस्य अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण आदि इत्यादि इस सत्य को स्वीकारे अथवा नहीं स्वीकारे, स्वयं आरएसएस आधिकारिक रूप से इस सत्य को स्वीकार चुका है कि उनके समर्थन के बिना यह आंदोलन न तो खड़ा होता और न ही इतना चल पाता, क्योंकि इंडिया अंगेस्ट करप्शन के पास कोई कैडर तो है नहीं, केवल मंचीय नेता है, भला टीवी देखने मात्र से जनता सड़कों पर उतरती है? उन्हें तो योजनाबद्ध तरीके से घरों से निकालना पड़ता है, यह काम टीम अन्ना और एनजीओ ने नहीं, बल्कि संघ विचार परिवार से जुड़े आनुषांगिक संगठनों ने किया है।


अब यह भी साबित हो चुका है कि न केवल आरएसएस ने अन्ना आंदोलन के लिए भीड़ जुटाई बल्कि इस आंदोलन का रोड़ मेप भी उसी ने तैयार किया। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की रणनीति मार्च 2011 में कर्नाटक के पुत्तर में हुई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में ही तय हो गई थी, इसी के बाद अन्ना ने अप्रेल तथा बाद में अगस्त में भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन किया। हाल ही में उजागर हुआ कि अन्ना टीम के सबसे चमचमाते युवा चेहरे अरविन्द केजरीवाल जो कि एक मारवाड़ी खानदान से ताल्लुक रखते है। उनके पिता व चाचा दोनों ही हरियाणा में आरएसएस तथा उससे जुड़े संगठनों के पदाधिकारी रह चुके है। अरविन्द केजरीवाल ने अपने सार्वजनिक जीवन में कभी भी इन दक्षिणपंथी समूहों की खुलकर आलोचना नहीं की, उनका रवैया सदैव ही संघ परिवार के साथ नरमी का रहा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी नजदीकी कोई छिपी हुई बात नहीं है। इस पूरे आंदोलन के दौरान जिस प्रकार वे अरूण जेटली, सुषमा स्वराज तथा नितिन गडकरी के साथ संपर्क बनाये हुये थे, उससे भी यह शक गहरा जाता है कि अंदर ही अंदर आरएसएस और अन्ना टीम के प्रमुख सदस्य अरविन्द केजरीवाल के साथ कुछ पक रहा था? यह अनशन के आखिरी दिन खुलकर पता भी लग गया जब संसद में हो रही बहस पर नाराजगी प्रकट करते हुए अरविन्द चैनलों पर बोले कि धारा 184 के तहत सरकार वोटिंग क्यों नहीं करा रही है? एक दिन पहले ही भाजपा ने इसी मुद्दे पर हंगामा किया तथा संसद में बहस नहीं होने दी, वह भी धारा 184 के तहत बहस पर अड़ी हुई थी ताकि वोटिंग कराई जा सके? भाजपा सफल नहीं हुई तो अरविन्द को खुलकर सामने आना पड़ा तथा उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि हम संसद में वोटिंग चाहते है? तो क्या अरविन्द, आरएसएस और भाजपा चाहते थे कि सप्रंग सरकार गिराई जाये। क्यों और किनके इशारों पर अरविन्द सरकार को गिराना चाहते थे ? इस सच्चाई को अभी सामने आना है।

गुजरात 2002

कात्‍यायनी की दो कविताएं


1.

आशवित्ज़ के बाद
कविता संभव नहीं रह गयी थी.
इसे संभव बनाना पड़ा था
शांति की दुहाई ने नहीं,
रहम की गुहारों ने नहीं,
दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं,
कविता को संभव बनाया था
न्याय और मानवता के पक्ष में खडे होकर
लड़ने वाले करोडो नें अपने कुर्बानियों से.
लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल
जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ
और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने.

गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं.
उसे संभव बनाना होगा.
कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई
होगी कविता के प्रदेश के बाहर.
हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से
बचने के लिए देश से बाहर
देश-देश भटकने या कहीं और किसी गैर देश की
सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से
बेहतर है अपनी जनता के साथ होना
और उन्हें याद करना जिन्होंने
जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए
कूच किया था अपने-अपने देशों से
सुदूर स्पेन की ओर.
कविता को यदि संभव बनाना है २००२ में
गुजरात के बाद
और अफगानिस्तान के बाद
और फिलिस्तीन के बाद,
तो कविता के प्रदेश से बाहर
बहुत कुछ करना है.
चलोगे कवि-मित्रो,
इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ?

2.


भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अन्धकार।

यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है।

यूँ संसद में आता बसन्त
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार।

इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास।

रचनाकाल : अप्रैल, 2002

- कात्‍यायनी

संगोष्‍ठी: मालेगांव धमाके, न्यायिक सांप्रदायिकता और इंडियन मुजाहिद्दीन

वक्ता- सुभाष गताडे, अजित साही, अनिल चमड़िया और मुज्तबा फारुक

स्थान- यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ
समय- 11:30 से 2 बजे तक
दिनांक- 21 अगस्त 2011, दिन रविवार


मित्रों,

   
पिछले दिनों मालेगांव धमाकों  के दो हिन्दुत्ववादी आरोपियों को मुंबई की एक अदालत ने यह कहते हुए जमानत दे दिया कि वे भले ही षडयंत्र से वाकिफ थे लेकिन सिर्फ इस आधार पर ही उन्हें षडयंत्रकारी नहीं माना जा सकता जबकि वहीं दूसरी ओर पूरे देशभर में सिर्फ शक के आधार पर बहुत से मुस्लिम नौजवानों को जेलों में रखा गया है। जाहिर है न्यायपालिका का रवैया इस मुद्दे पर काफी खतरनाक हद तक सांप्रदायिक हो चुका है। वहीं आतंकवाद के मुद्दे का दूसरा पहलू यह भी उभरता जा रहा है कि इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम पर लगातार मुसलमानों को उठाए जाने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। इंडियन मुजाहिद्दीन क्या है किसका संगठन है या है भी की नहीं या एक राज्य प्रायोजित कागजी संगठन है, इस पर भी लगातार बहसें जारी हैं। कुछ संगठनों और बुद्धिजीवियों की तरफ से इस पर सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की भी मांग उठ रही है। इसी आलोक में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है जिसमें नार्वे की घटनाओं के आलोक में हिंदुत्व के उजागर होते आतंकवादी षडयंत्रों पर भी परिचर्चा होगी।


राजीव यादव (9452800752)
rajeev.pucl@gmail.com

मुम्‍बई की 'स्पिरिट' और भारत की आत्‍मा

मुंबई में हाल ही में हुए बम धमाकों के बाद सुब्रमणियम स्‍वामी ने डीएनए में सांप्रदायिक नजरिए से और घृणा फैलाने वाला एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था 'इस्‍लामी आतंकवाद का खात्‍मा कैसे किया जाए - एक विश्‍लेषण'. इस लेख पर प्रबुद्ध नागरिकों ने त्‍वरित एवं तीखी प्रतिक्रिया की। फिल्‍मकार राकेश शर्मा ने डीएनए में ही स्‍वामी के इस लेख का जवाब लिखा। हम अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी अनुवाद 'बर्बरता के विरुद्ध' के पाठकों के लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं।
हिंदुत्‍ववादी कट्टरपंथी ताक़ते अब स्‍वामी के समर्थन में उतर आई हैं और उनके के इस लेख को सही बताते हुए टिप्‍पणियां, पत्र, ईमेल आदि लिखने का अभियान  चला रखा है। सभी प्रगतिशील नागरिकों से अनुरोध है कि वे भी इस अभियान का जवाब दें और इस लेख के अंत में दिए गए लिंक, ईमेल पतों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराएं।
.................................................
(17 जुलाई 2011, रविवार को डी एन ए में प्रकाशित)

मुम्‍बई की 'स्पिरिट' और भारत की आत्‍मा
**राकेश शर्मा* *

- सुब्रमणियम स्‍वामी के घृणा फैलाने वाले लेख(डी एन ए, 16 जुलाई) का प्रत्‍युत्‍तर 

मैं जिस मुंबई शहर को दो दशकों से भी अधिक समय से अपना घर कहता हूँ, वहाँ इस सप्‍ताह हुए बम धमाकों के बाद मैंने भयाकुल होकर कई टीवी चैनल देखे, कई कर्कश सोशलाइटों, मौकापरस्‍त राजनेताओं और सर्वज्ञाता टीवी एंकरों को पादरीनुमा ज्ञान बघारते सुना। हम सभी पर ऑनलाइन उन्‍माद, टीवी चैनलों के उपदेशों और 140 अक्षरों में हर जटिल समस्‍या का चटपट समाधान बताने वाली भद्दी 'ट्वीट्स' की मानो बौछार हो गर्इ है। जांच-पड़ताल का कोई निष्‍कर्ष निकलने से पहले ही अज्ञानी और विशेषज्ञ दोनों तरह के लोगों ने तरह-तरह के 'आक्रामक' सुझाव दे डाले  पड़ोसी को नेस्‍तनाबूद कर दो, बातचीत बंद करो, आतंकी ठिकानों को नष्‍ट करने के लिए हमला करो, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी के आदेश दो, हरेक नागरिकों पर निगरानी बढ़ाओ (ख़ासकर एक समुदाय विशेष के नागरिकों पर), पोटा को वापस लाओ, मुकदमों की त्‍वरित सुनवाई और फैसला करो, कसाब को फांसी दो, अफ़ज़ल को फांसी दो आदि-आदि। 

प्रसिद्धि के भूखे नेता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए नीतिगत विफलताओं, रीढ़विहीन सरकारों की कठोर विवेचनाओं और इस्‍तीफ़ों की माँग की रट लगाए हुए हैं। सुब्रमणियम स्‍वामी जैसे लोग हमें प्रेरित करते हैं कि हम आतंक की महाविपत्ति का जवाब हिन्‍दुओं की तरह दें न कि भारतीयों की तरह, वो हमें आगाह करते हैं कि तालिबान हमारी चौखट तक आ गया है, वो अपने पुराने सिद्धांतों पर जमी धूल को साफ़ करके और पुन: चक्रित करके हमें पेश करते हैं तथा हमें वस्‍तुत: हिन्‍दू तालिबान में रूपान्‍तरित होने की सलाह देते हैं।     

संस्कृति के नाम पर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोशल इंजीनियरिंग परियोजना के तहत बच्चों को मेघालय से कर्नाटक लाया जा रहा है और उन्हें उनकी मूल संस्कृति से काटकर हिंदुत्व की घुट्टी पिलाई जा रही है. 'तहलका' से संजना की रिपोर्ट:
कर्नाटक के 35 स्कूलों और मेघालय के चार जिलों में की गई तीन महीने की गहन पड़ताल के दौरान तहलका ने पाया कि साल 2001 से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सोशल इंजीनियरिंग की एक ऐसी परियोजना पर काम कर रहा है जिसके तहत अब तक मेघालय के कम से कम 1600 बच्चों को कर्नाटक में लाकर उन्हें कन्नड़ और तथाकथित भारतीय संस्कृति का पाठ पढ़ाया जा रहा है. मेघालय से लाए जाने वाले इन बच्चों के नवीनतम बैच में कुल 160 बच्चे थे जिन्हें संघ के करीब 30 कार्यकर्ताओं द्वारा सात जून को 50 घंटे का सफर तय करके बंगलुरु लाया गया था.

इस परियोजना के मुख्य संचालक संघ के कार्यकर्ता तुकाराम शेट्टी ने तीन महीनों के दौरान तहलका के सामने बेबाकी से स्वीकार किया कि यह संघ और इसकी सहयोगी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे एक बड़े अभियान का हिस्सा है. उनका कहना था, ‘संघ ने इलाके में अपने विस्तार और ईसाई मिशनरी समूहों से निपटने के मकसद से एक दीर्घकालिक योजना बनाई है. ये बच्चे इसी का एक हिस्सा हैं. आने वाले समय में ये बच्चे हमारे मूल्यों का अपने परिवार के सदस्यों में प्रसार करेंगे.’ बचपन से ही संघ से जुड़े रहे शेट्टी कर्नाटक के दक्षिण कन्नडा जिले से ताल्लुक रखते हैं और उन्होंने अपने जीवन के तकरीबन आठ वर्ष मेघालय में, वहां की भौगौलिक स्थिति और संस्कृति का अध्ययन करने में बिताए हैं.

अगर मेघालय की बात की जाए तो ये देश के उन गिने-चुने राज्यों में है जहां ईसाई समुदाय कुल जनसंख्या का करीब 70 फीसदी होकर बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका में है. बाकी 30 फीसदी में करीब 13 फीसदी हिंदू हैं और 11.5 फीसदी यहां के मूल आदिवासी हैं. सबसे पहली बार ईसाई मिशनरी यहां उन्नीसवीं सदी के मध्य में आए थे. व्यापक स्तर पर धर्मातरण के बावजूद आदिवासियों की एक बड़ी आबादी अभी भी अपने मूल धर्मों से जुड़ी हुई है और इसमें कहीं न कहीं धर्म परिवर्तन करने वालों के प्रति नाराजगी भी है. संघ, आदिवासियों की इसी नाराजगी का फायदा उठाना चाहता है और जैसा कि शेट्टी मानते हैं कि बच्चे और उनकी शिक्षा इसकी शुरुआत है.

बंगलुरु से करीब 500 किलोमीटर दूर उप्पूर में स्थित थिंकबेट्टू हायर प्राइमरी एंड सेकंडरी स्कूल उन 35 स्कूलों में से है जहां इन बच्चों को पढ़ाया जा रहा है. 2008 में छह से सात साल की उम्र के 17 बच्चों को मेघालय से यहां लाया गया था. स्कूल के प्रधानाध्यापक के कहने पर ये बच्चे एक-एक कर खड़े होते हैं और अपना परिचय स्थानीय कन्नड भाषा में देते हैं. मगर अध्यापक महोदय खुद अपना परिचय देने से ये कह कर इनकार कर देते हैं कि ‘आप बच्चों को देखने आए हैं, वे आपके सामने हैं. अगर मैं आपको अपना नाम बताऊंगा तो आप उसे मेरे खिलाफ इस्तेमाल करेंगीं.’ बस इतना पता चल पाता है कि वो एक पूर्व बैंक कर्मचारी हैं और कोने में खड़ी निर्मला नाम की महिला उनकी पत्नी है.

इसके बाद बच्चों से हाल ही में याद किया गया एक श्लोक सुनाने को कहा जाता है. घुटे सिर वाले ये बच्चे अध्यापक के सम्मान में गुरुर्बृह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:.. का पाठ करने लगते हैं. जिस हॉल में ये सब हो रहा है दरअसल वही इनके शयन, अध्ययन और भोजन, तीनों कक्षों का काम करता है. मेघालय के चार जिलों - रिभोई, वेस्ट खासी हिल्स, ईस्ट खासी हिल्स और जंतिया हिल्स से कर्नाटक में संघ से जुड़े विभिन्न स्कूलों में लाए गए ये बच्चे मूलत: खासी और जंतिया आदिवासी समुदायों से संबंध रखते हैं. परंपरागत रूप से खासी आदिवासी सेंग खासी और जंतिया आदिवासी नियाम्त्रे धर्म को मानते हैं.

जबरन थोपी जा रही दूसरी संस्कृति के तहत इन बच्चों जो किताबें दी जाती हैं वे बंगलुरू स्थित संघ के प्रकाशन गृहों में छपती हैंमंद्य जिले के बीजी नगर में स्थित श्री आदिचुंचनगिरी हायर प्राइमरी स्कूल के प्रधानाचार्य मंजे गौड़ा कहते हैं, ‘अगर ये बच्चे मेघालय में ही रहते तो ये अब तक तो ईसाई बन चुके होते. संघ इन्हें बचाने का प्रयास कर रहा है. जो शिक्षा बच्चे यहां प्राप्त करते हैं उसमें मजबूत सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करना शामिल होता है. जब ये यहां से वापस अपने घर जाएंगे तो इन संस्कारों का अपने परिवारों में प्रसार करेंगे.’ जिन सांस्कृतिक मूल्यों की बात गौड़ा कर रहे हैं उनमें धार्मिक मंत्रोच्चार, हिंदू तीज त्यौहारों का ज्ञान और मांसाहारी भोजन, जो कि मेघालय में अत्यधिक प्रचलित है, से इन बच्चों को दूर रखना शामिल है.

मगर इससे होगा क्या? शेट्टी तहलका को बताते हैं कि छोटी उम्र में भारत के सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ाव और अनुशासन तो दरअसल पहला कदम है. ‘यह महत्वपूर्ण है कि ये बच्चे इन मूल्यों को कच्ची उम्र में आत्मसात करें. ये इन्हें हमारे और नजदीक और ईसाइयों की जीवन पद्धति से और दूर ले जाएगा. हम उन्हें श्लोक सिखाते हैं जिससे कि वे ईसाई धर्मगीतों को न गाएं. हम उन्हें मांस से दूर कर देते हैं ताकि वे अपने धर्म में रची-बसी जीव-बलि की परंपरा से घृणा करने लगें’ वे कहते हैं, ‘अंतत: जब संघ उनसे कहेगा कि गाय एक पवित्र जीव है और जो इसे मारकर खाते हैं उनका समाज में कोई स्थान नहीं है तो तो ये बो उसे मानेंगे.’ क्या इन बच्चों को आरएसएस के भावी झंडाबरदारों की भूमिका के लिए तैयार किया जा रहा है, इस सवाल पर शेट्टी केवल इतना कहते हैं कि वे किसी न किसी रूप में ‘परिवार’ का हिस्सा रहेंगे और इस बारे में समय ही बताएगा.

तहलका ने कई स्कूलों का दौरा किया और पाया कि विभिन्न स्कूलों में सिखाये जा रहे सांस्कृतिक मूल्यों में तो कोई खास फर्क नहीं है मगर आरएसएस की विचारधारा में कोई कितनी गहरी डुबकी लगाएगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि वह बच्चा पढ़ता कौन से स्कूल में है. जो बच्चे मजबूत आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से संबंध रखते हैं वे ऐसे स्कूलों में रहते हैं जहां पढ़ने और रहने की समुचित व्यवस्था होती है क्योंकि उनके परिवार इसका खर्च उठाने की स्थिति में होते है. इन अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न स्कूलों में अनुशासन उतना कड़ा नहीं होता. मगर उत्तर-पूर्वी राज्य से आए इन बच्चों में से जितनों से हमने मुलाकात की उनमें से करीब 60 फीसदी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले थे जो उप्पूर के थिंकबेट्टू जैसे नाम-मात्र की सुविधाओं और कड़े अनुशासन वाली व्यवस्था में रहते हैं.

खास बात ये है कि ज्यादातर स्कूल जिनमें इन बाहरी बच्चों को रखा गया है कर्नाटक के उस तटीय इलाके में स्थित हैं जो हाल के कुछ वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा के केंद्र में रहा है. इनमें से कुछ स्थान हैं पुत्तूर, कल्लाड्का, कॉप, कोल्लुर, उप्पूर, डेरालाकट्टे, दक्षिण कन्नडा में मूदबिद्री और उडुपी और चिकमंगलूर जिले. इनके अलावा बच्चों को प्रभावशाली आश्रमों द्वारा चलाए जा रहे सुत्तूर के जेएसएस मठ, मांड्या के आदिचुंचनगिरी और चित्रगुड़ा के मुरुगराजेंद्र जसे स्कूलों में भी रखा गया है.

खास बात ये है कि ज्यादातर स्कूल जिनमें इन बाहरी बच्चों को रखा गया है कर्नाटक के उस तटीय इलाके में स्थित हैं जो हाल के कुछ वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा के केंद्र में रहा है
मगर मेघालय के ये नन्हे-मुन्ने हजारों किलोमीटर दूर कर्नाटक में कैसे आ जाते हैं? इन्हें वहां से लाने का तरीका क्या है? तहलका ने जिस भी बच्चे या उसके माता-पिता से बात की सबका कहना था कि ये सब किये जाने के पीछे सबसे बड़ा हाथ तुकाराम शेट्टी का है.

आरएसएस से संबद्ध संस्था सेवा भारती के पूर्व कार्यकर्ता शेट्टी जंतिया हिल्स के जोवाई में स्थित ले सिन्शर कल्चरल सोसाइटी के सर्वेसर्वा हैं. हालांकि इस संगठन को तो कोई इसके मुख्यालय से बाहर ही नहीं जानता है किंतु तुकाराम या बह राम - मेघालय में शेट्टी इस नाम से भी जाने जाते हैं - का नाम यहां बच्चा-बच्चा जानता है. साफ है कि संगठन तो आरएसएस से जरूरी दूरी प्रदर्शित करने का जरिया भर है. राजधानी शिलॉंग से लेकर दूरदराज के गांव तक सभी जानते हैं कि बच्चों को कर्नाटक ले जाने वाला असल संगठन संघ ही है. इस संस्था के जंतिया हिल्स जिले में तीन दफ्तर हैं - जोवाई, नरतियांग और शॉंगपॉंग. इसके अलावा सेवा भारती और कल्याण आश्रम जैसे संगठन भी हैं जो बच्चों की पहचान करने और उन्हें कर्नाटक भेजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

स्थानीय सेंग खासी स्कूल में अध्यापक और कल्याण आश्रम में रहने वाले योलिन खरूमिनी कहते हैं, ‘हमसे उन परिवारों की पहचान करने के लिए कहा जाता है जो ईसाई नहीं बने हैं और जिनका अपने मूल धर्म से काफी जुड़ाव है. साधारणत: ये परिवार ईसाइयों के बारे में अच्छा नहीं सोचते. इनके सामने बच्चों को कर्नाटक में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा जाता है. हम उन्हें हमेशा ये भी बताते हैं कि उनके बच्चों को सेंग खासी या नियाम्त्रे की परंपराओं के मुताबिक ही शिक्षा दी जाएगी.’ खरूमिनी की खुद की भतीजी कर्डमोन खरूमिनी भी कर्नाटक के मंगला नर्सिंग स्कूल में पढ़ती है.

कॉप (जिला उडुपी) के विद्यानिकेतन स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ रही खतबियांग रिम्बाई विस्तार से बताती है कि कैसे 200 बच्चों को विभिन्न गांवों से बंगलुरु लेकर आया गया था. ‘हमें कई समूहों में बांटकर बड़े बच्चों को उनका इंचार्ज बना दिया गया. फिर शिलॉंग से हमें टाटा सूमो में बिठाकर ट्रेन पकड़ने के लिए गुवाहाटी ले जाया गया’ वो कहती है. बंगलुरु में उन्हें विभिन्न स्कूलों में भेजने से पहले आरएसएस के कार्यालय ले जाया गया था.

एक चौंकाने वाली बात तहलका को शिलॉंग के एक संघ कार्यकर्ता प्रफुल्ल कोच और थिकबेट्टू स्कूल के प्रमुख ने ये बतायी कि इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाता है कि एक ही परिवार के दो बच्चों को हमेशा अलग-अलग स्कूलों में भर्ती किया जाए. ‘अगर वे साथ नहीं हैं तो उन्हें अनुशासित करना आसान होता है. अगर हमें उन्हें बदलना है तो उन पर नियंत्रण रखना ही होगा. उनका घर से जितना कम संपर्क रहे उतना ही बढ़िया.’

बाल न्याय कानून-2000 कहता है कि बच्चों के कानूनी स्थानांतरण के लिए इस तरह के सहमति पत्र अनिवार्य है. मगर इस कानून का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है
तहलका को एक ही परिवार के ऐसे कई बच्चे अलग-अलग स्कूलों में मिले - खतबियांग का भाई सप्लीबियांग रिंबाई केरल के कासरगॉड में स्थित प्रशांति विद्या निकेतन में पढ़ता है जबकि वो कर्नाटक में विद्या निकेतन स्कूल में पढ़ रही है. विद्यानिकेतन के ही एक और छात्र रीन्बॉर्न तेरियांग की बहन मैसूर के जेएसएस मठ स्कूल में पढ़ रही है. मंद्य के अभिनव भारती बॉइज हॉस्टल के बेद सिंपली की बहन विद्यानिकेतन में पढ़ती है. मंद्य जिले के आदिचुंचनगिरी स्कूल में पढ़ने वाले इवानरोई लांगबांग की भी बहन डायमोन्लांकी शिमोगा के वनश्री स्कूल में पढ़ती है. यहां ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिसमें एक ही परिवार के दो या ज्यादा बच्चों को एक साथ पढ़ने दिया जा रहा हो. ऐसा क्यों किया जा रहा है पूछने पर ये बच्चे कुछ बोल ही नहीं पाते.

जब तहलका ने बच्चों के परिवारवालों से पूछा कि वे अपने बच्चों को अलग-अलग क्यों रख रहे हैं तो उनका जवाब था कि इस बारे में उन्हें काफी बाद में जाकर पता लगा. खतबियांग और सप्लीबियांग की बड़ी बहन क्लिस रिंबाई बताती हैं, ‘जब वे गए थे तो हमें बस इतना पता था कि वे बंगलुरु जा रहे हैं. हमें स्कूल के बारे में कुछ पता ही नहीं था. ये तो काफी बाद में हमें पता लगा कि वे अलग कर दिये गए हैं और बंगलुरू में नहीं है. खतबियांग ने हमें ये भी बताया कि वो फिर से कक्षा सात में ही पढ़ रही है.’ जंतिया हिल्स में रहने वाला रिंबाई परिवार काफी समृद्ध है और बच्चों के पिता कोरेन चिरमांग आरएसएस से सहानुभूति रखने वालों में से हैं जिन्होंने अपने बच्चों के अलावा और भी कई बच्चों को कर्नाटक भेजने में अहम भूमिका निभाई है. ‘वे पहले काफी सक्रिय रहा करते थे मगर हाल ही में काफी बीमार होने की वजह से आरएसएस के साथ दूसरे गांवों में नहीं जा पा रहे हैं.’ क्लिस कहती हैं.

अपने भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और वातावरण से दूर रहने का इन छोटे-छोटे बच्चों पर अलग-अलग तरीके से असर पड़ रहा है. जिन स्कूलों में भी तहलका गया वहां के हॉस्टल वॉर्डन, अध्यापकों और स्वयं बच्चों ने ये स्वीकारा कि मेघालय के उनके गांव और कर्नाटक के उनके स्कूलों की हवा-पानी में काफी अंतर होने की वजह से बच्चों को तरह-तरह की शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. चमराजनगर के दीनबंधु चिल्ड्रंस होम के सचिव जीएस जयदेव के मुताबिक मेघालय से आए छ: साल के तीन बच्चों - शाइनिंग लामो, सिबिनरिंगखेल्म और स्पिड खोंगसेइ - के शरीर पर कर्नाटक की भीषण गर्मी की वजह से लंबे समय तक जबर्दस्त चकत्ते रहे. थिंकबेट्टू स्कूल में भी कई बच्चे हमें ऐसे मिले जिनकी त्वचा पर कई महीनों से वहां रहने के बावजूद जलने के निशान साफ देखे जा सकते थे. नागमंगला में आदिचुंचनगिरी मठ द्वारा चलाए जाने वाले संस्कृत कॉलेज में पढ़ने वाले मेघालय के 11 बच्चों में से सबसे बड़े आयोहिदाहुन रैबोन ने तहलका को बताया कि मेघालय से आने वाले तीन छोटे बच्चे पिछले काफी समय से बीमार चल रहे हैं क्योंकि उन्हें स्कूल में दिया जाने वाला खाना रास नहीं आ रहा है.

इन बच्चों के ऊपर उन्हें अपने घरों से यहां लाए जाने का जबर्दस्त मानसिक प्रभाव भी पड़ रहा है. जिन भी स्कूलों में तहलका जा सका उनमें स्कूल के अधिकारियों ने बच्चों को बुलाकर उन्हें कन्नड में अपना परिचय देने का आदेश दिया. स्कूल के संचालकों के लिए तो ये बड़े गर्व की बात थी कि बाहर से आए ये बच्चे उनकी भाषा को इतने अच्छे तरीके से बोल पा रहे हैं. किंतु बच्चों पर अब तक सीखा सब कुछ भूलने का क्या असर हो रहा है इसकी शायद किसी को कोई परवाह नहीं. विभिन्न स्कूलों के अधिकारियों का दावा है कि मेघालय से आए बच्चे दूसरे बच्चों के साथ अच्छे से घुल-मिल गए हैं मगर सच तो ये है कि ऐसा हो नहीं रहा है. बच्चों से कुछ मिनटों की बातचीत में ही हमें पता लगता है कि कैसे स्थानीय बच्चे उनके अलग तरह के नाम और शक्लों को लेकर उनका मजाक बनाते हैं और इसलिए वे अपने जैसे बच्चों के साथ ही रहना पसंद करते हैं.

हमने एक कक्षा में पाया कि जहां स्थानीय बच्चे एक बेंच पर चार के अनुपात में बैठे हुए थे वहीं मेघालय से आए छ-सात बच्चे एक-दूसरे के साथ बैठने की कोशिश में बस किसी तरह बेंच पर अटके हुए थे. जहां इन बच्चों की संख्या काफी कम है वहां ये अपने में ही गुम रहने लगे हैं. बड़े बच्चों के लिए स्कूल की भौगोलिक स्थिति भी काफी निराश करने वाली है. बंगलुरु से करीब 150 किमी दूर नागमंगला में नवीं कक्षा में पड़ रहा इवानरोई लांगबांग अपनी निराशा कुछ इस तरह व्यक्त करता है, ‘हमें बताया गया था कि में बंगलुरु में पढ़ूंगा. ये तो यहां आने के बाद मुझे पता चला कि ये बंगलुरु से काफी दूर है. यहां हम चाहरदीवारी से बाहर नहीं जा सकते और अगर कभी चले भी जाएं तो उसका कोई फायदा नहीं क्योंकि बाहर वैसे भी कुछ है ही नहीं.’

इन बच्चों को मेघालय से लाकर पूरी तरह से कन्नड़ भाषी माहौल में डुबो देने का नतीजा छमराजनगर में स्थित दीनबंधु चिल्ड्रन होम में देखा जा सकता है. यहां की केयरटेकर छह साल के एक बच्चे की प्रगति को बयान करते हुए कहती है, ‘सिबिन को यहां रहते हुए अभी दो ही महीने हुए हैं पर उसने काफी कन्नड़ सीख ली है. एक बार उसके घर से फोन आया तो उसने सवालों के जवाब कन्नड़ में देने शुरू कर दिए जो कि जाहिर है कि घरवालों की समझ में बिल्कुल नहीं आई.’ असंवेदनहीना देखिए कि इसके बाद केयरटेकर इतनी जोर से हंसती है जैसे कि यह कोई मजाक की बात हो.

फिर वह कहती है, ‘45 मिनट तक वह महिला जो कि शायद उसकी मां होगी, कोशिश करती रही. सिबिन के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि वह अपनी भाषा भूल गया था.’ इसके बाद वह सिबिन को बताने लगती है कि रात के भोजन को कन्नड़ में क्या कहते हैं.

इस तरह से देखा जाए तो ये बच्चे जो शारीरिक और मानसिक नुकसान झेल रहे हैं वह सामान्य बोर्डिंग स्कूलों के बच्चों से अलग है. इन बच्चों को यहां लाने के पीछे का उद्देश्य कहीं बड़ा है यह कोच जैसे संघ कार्यकर्ता भी मानते हैं. सवाल उठता है कि इतनी छोटी उम्र के बच्चों को इनके मां-बाप आखिर क्यों इतनी दूर भेज रहे हैं? मेघालय के आठ गांवों की अपनी यात्रा के दौरान तहलका ने पाया कि ऐसे लोगों में से ज्यादातर गरीब हैं जो इस उम्मीद में अपने बच्चों को संघ को सौंप देते हैं कि उनकी देखभाल अच्छी तरह से हो सकेगी. इसका उनसे वादा भी किया जाता है. अक्सर ऐसे बच्चों का कोई बड़ा भाई या बहन पहले ही इस तरह के स्कूलों में पढ़ रहा होता है.

बारीकी से पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस समूची प्रक्रिया में झूठ के कई ताने-बाने हैं. इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

मां-बाप ने लिखित रूप में अपनी सहमति दे दी है

जब तहलका ने कर्नाटक के इन स्कूलों का दौरा कर उनसे वे कागजात मांगे जो ये साबित कर सकें कि इन बच्चों का एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण कानूनी है तो हमें गांव के मुखिया रैंगबा शनांग द्वारा हस्ताक्षरित पत्र दिखाए गए जिसमें लिखा गया था कि इनके परिवारों की माली हालत बहुत खराब है. इसके साथ ही हमें बच्चों के जन्म और जाति प्रमाणपत्र भी दिखाए गए. मगर किसी भी स्कूल ने कोई ऐसा पत्र नहीं दिखाया जिस पर बच्चे के मां-बाप के दस्तखत हों और जिसमें साफ तौर पर जिक्र हो कि बच्चे को किस स्कूल के सुपुर्द किया जा रहा है. मेघालय में भी तहलका जिन लोगों से मिला उनमें से भी किसी के पास इस तरह के हस्ताक्षरित सहमति पत्र की कॉपी नहीं थी. बाल न्याय कानून-2000 कहता है कि बच्चों के कानूनी स्थानांतरण के लिए इस तरह के सहमति पत्र अनिवार्य है. मगर इस कानून का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है. इस तरह से देखा जाए तो ये बच्चों की तस्करी जैसा है.

स्कूलों में सेंग खासी और नियाम्त्रे धर्मों की शिक्षा दी जाती है

खासी और जंतिया जनजाति में ईसाई धर्म अपना चुके लोगों और बाकियों के बीच तनातनी रहती है. संघ द्वारा ध्यान से ऐसे बच्चों को चुना जाता है जो गरीब घरों से हैं और अब तक ईसाई नहीं बने हैं. स्वेर गांव की बिए नांगरूम कहती हैं, ‘मुझसे कहा गया कि अपनी बेटी को धर्म परिवर्तन से बचाने का एक ही रास्ता है कि उसे बाहर भेज दो. अगर मैंने ऐसा नहीं किया तो चर्च मेरे बच्चों को ले जाएगा और उन्हें पादरी और नन बना देगा. मैं बहुत डरी हुई थी इसलिए मैं अपनी बेटी को वहां भेजने के लिए राजी हो गई.’ छह साल बीत चुके हैं मगर बिए को अब भी उस स्कूल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है जहां उसकी बेटी पढ़ रही है. उसके पास कुछ है तो बस बेटी की कक्षा का एक फोटो. वह कहती है, ‘अगर मुझे पता चल भी जाए कि वह कहां है तो मेरे पास उस तक पहुंचने और उसे वापस लाने लायक पैसा नहीं है. पर मैं दूसरे बच्चे को कभी भी वहां नहीं भेजूंगी.’

बिए का टूटा-फूटा घर, जिसमें वह अपनी मां और तीन दूसरे बच्चों के साथ रहती है, उसकी गरीबी की कहानी कह देता है. इससे ये भी संकेत मिलता है कि आखिर क्यों लोग चाहकर भी अपने बच्चों को वापस नहीं ला पाते. दरअसल उनके पास इतना भी पैसा नहीं होता. कई लोगों का तहलका से कहना था कि उनके बच्चे संघ के जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं वहां उनके धर्म की शिक्षाएं दी जाती हैं. मोखेप गांव के जेल चिरमांग के घर में तहलका को फ्रेम में लगी एक फोटो दिखी. इसमें जेल की बेटी रानी चिरमांग को उसके स्कूल के संरक्षक संत श्री बालगंगाधरनाथ सम्मानित करते हुए नजर आ रहे थे. हमने जेल से पूछा कि भगवा चोले में नजर आ रहे ये संत कौन हैं तो उसका जवाब था कि वे एक सेंग खासी संत हैं जो उस स्कूल को चलाते हैं. उसकी आवाज में जरा भी शंका नहीं थी. बाद में पता चला कि उसका पति डेनिस सिहांगशे संघ का कार्यकर्ता है जिसने माना कि अपनी बेटी का उदाहरण देकर उसने कई दूसरे लोगों को अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के लिए राजी किया है. डेनिस के शब्दों में ‘लोगों की संघ के बारे में गलत धारणा है. मैं हमेशा उन्हें यही कहता हूं कि संघ उन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कृति देगा.’

ज्यादातर मां-बाप इससे अनजान होते हैं कि इन स्कूलों में उनकी संस्कृति के बजाय किसी और ही चीज की घुट्टी पिलाई जा रही है. जबरन थोपी जा रही दूसरी संस्कृति के तहत इन बच्चों जो किताबें दी जाती हैं वे बंगलुरू स्थित संघ के प्रकाशन गृहों में छपती हैं. जेएसएस स्कूल की लाइब्रेरी भारतीय संस्कृति प्रकाशन से छपकर आईं उन किताबों से भरी पड़ी है जो संघ की विचारधारा पर आधारित हैं. इनमें सेंग खासी या नियाम्त्रे धर्म की शिक्षाओं का कोई अंश नजर नहीं आता.

बच्चे निराश्रित और असहाय हैं

गैरआदिवासी समाज में पिता के परिवार को छोड़ देने से परिवार को निराश्रित माना जाता है. मगर मेघालय के आदिवासी समाज में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि पुरुष किसी दूसरी स्त्री के साथ रहने लगते हैं और बच्चों की जिम्मेदारी मां संभालती है. अगर मां की मौत हो जाती है तो बच्चे को रिश्तेदार पालते हैं.

बच्चों को खुद को अच्छी तरह से नए माहौल के मुताबिक ढाल लिया है

जब बच्चे मेघालय छोड़ रहे होते हैं तो न तो उन्हें और न ही उनके मां-बाप को ये पता होता है कि उन्हें आखिरकार कहां ले जाया जाएगा. कमजोर आर्थिक हालत और स्कूलों में सुविधाओं के अभाव के चलते मां-बाप का बच्चों से सीधा संपर्क नहीं हो पाता. संघ मां-बाप को बताता है कि उनके बच्चे खुश हैं और नए माहौल में काफी अच्छी तरह से ढल गए हैं. मगर हकीकत कुछ और ही होती है. विद्या निकेतन में छठवीं का छात्र रापलांग्की ढकार इंतजार कर रहा है कि उसके चाचा आएंगे और उसे घर ले जाएंगे. वह कहता है, ‘हम तभी वापस जा सकते हैं जब हमारे घर से लोग यहां आएं और हमें अपने साथ ले जाएं. हर साल जब पढ़ाई खत्म होती है तो हम सुनते हैं कि हमें वापस ले जाया जाएगा. मगर दो साल हो गए हैं.’

तहलका जिन बच्चों से मिला उनमें से सिर्फ दो ही ऐसे थे जिन्हें घर लौटने का मौका मिला था. रापलांग्की के कस्बे रालिआंग में जब तहलका ने उसके चाचा से पूछा कि वे अपने भतीजे को लेने क्यों नहीं गए तो वे हैरान हो गए. उनका कहना था, ‘मुझे तो इसमें जरा भी शंका नहीं थी कि मेरा भतीजा अच्छी तरह से वहां रम गया है. जोवाई में संघ की हर बैठक में हमें आश्वस्त किया जाता है कि बच्चे खुश और स्वस्थ हैं.’

बच्चों और उनके अभिभावकों के बीच सीधा संपर्क यानी फोन कॉल अभिभावकों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है. अगर मां-बाप बच्चे की पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ हों तो बच्चों को मठों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूलों में रखा जाता है जिनकी तुलना किसी अनाथाश्रम से की जा सकती है. यहां फोन की कोई सुविधा नहीं होती जैसा कि श्री आदिचुंचनगिरी मठ द्वारा संचालित हॉस्टल में देखने को मिलता है.

मगर संघ को इससे कोई मतलब नहीं. उसके लिए यह सब एक बड़े उद्देश्य के लिए चलाई जा रही प्रक्रिया का हिस्सा है. एक ऐसी प्रक्रिया जो न सिर्फ बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक यातना पैदा कर रही है बल्कि मेघालय की एक पीढ़ी को उसकी मूल संस्कृति से दूर भी ले जा रही है. 

संस्कृति के रक्षकों कहो- किसकी रोटी में किसका लहू है?

विप्‍लव राही
भारतीय संस्कृति अक्सर खतरे में पड़ जाती है। और फिर उसे बचाने के लिए बहुत से लोग कमर कसने लगते हैं। लेकिन संस्कृति है कि फिर से खतरे में पड़ जाती है….अपनी इस महान संस्कृति को कभी सविता भाभी खतरे में डाल देती हैं, तो कभी सच का सामना इसे तार-तार करने पर उतारू हो जाता है। कभी सहमत की प्रदर्शनी इसकी दुश्मन बन जाती है, तो कभी मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग इस पर कालिख पोतने लगती है। भारतीय संस्कृति के रक्षकों को बड़ा गुस्सा आता है। वो सबकुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन संस्कृति पर हमला? इसे तो हरगिज़ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सबका गुस्सा देख कई बार मुझे भी लगता है, इतने समझदार लोग गुस्सा कर रहे हैं, ज़रूर कोई वाज़िब बात होगी। आखिर हम भारतवासी हैं, भारतीय संस्कृति पर हमला कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? सोचता हूं मुझे भी संस्कृति की रक्षा में जुटे लोगों का साथ देना चाहिए। 

भारतीय संस्कृति की रक्षा का फैसला कर तो लिया, लेकिन इस पर अमल कैसे करूं समझ नहीं आ रहा। आखिर जिसकी रक्षा करनी है, उसका अता-पता, उसकी पहचान तो मालूम होनी चाहिए। दिक्कत यहीं है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि आखिर ये भारतीय संस्कृति है क्या चीज़? एक बार संघ प्रशिक्षित एक वीएचपी नेता ने मुझे समझाया था कि हिंदू – मुसलमान एक मुल्क में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उनकी दलील थी – दोनों की संस्कृति अलग है। हिंदू पूरब की ओर मुंह करके पूजा करता है, मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके। हिंदू हाथ धोते हुए कोहनी से हथेली की ओर पानी डालता है, मुसलमान वज़ू करते हुए पहले हथेली में पानी लेता है, फिर कोहनी तक ले जाता है। हिंदू का तवा बीच में गहरा होता है, मुसलमान का बीच में उठा हुआ होता है…कितनी अलग है दोनों की संस्कृति…कैसे रह सकते हैं साथ-साथ? आशय ये था कि हिंदू-मुसलमान की राष्ट्रीयता अलग-अलग है।
मुझे उनकी बातें सुनकर लगा मुहम्मद अली जिन्ना की टू-नेशन थियरी सुन रहा हूं। इस ‘ज्ञान’ के जवाब में मैंने पूछा, पंजाब का हिंदू भी ज़्यादातर रोटी खाता है और मुसलमान भी। बंगाल में हिंदू हों या मुसलमान सब भात खाते हैं। केरल के हिंदू का रहन-सहन कश्मीरी पंडित से मेल नहीं खाता। गुजराती हिंदू के रीति-रिवाज़ बिहार के हिंदू से अलग हैं। फिर बात हिंदू-मुसलमान की कैसे हुई? उसके पास जवाब नहीं था।
खैर, वो बहस तो खत्म हो गयी, लेकिन संस्कृति का सवाल अब भी वहीं अटका रहा। क्या धार्मिक रीति-रिवाज़ों, खान-पान, रहन-सहन जैसी बातें संस्कृति हैं? किसी ने बताया कि संस्कृति इससे ज़्यादा गहरी, इससे ज़्यादा सूक्ष्म चीज़ है। वो सभ्यता से एक कदम आगे की बात है। एक परिभाषा कहती है कि सभ्यता का मतलब है समाज के भौतिक जीवन से जुड़ी विशेषताएं जबकि संस्कृति का लेना-देना मन, बुद्धि और आत्मा के विकास से है। संस्कृति यानी सम्यक् कृति। संस्कृति यानी वो सारी बातें जो हमें संस्कारित करती हैं।
बात कुछ और उलझ गयी है। कुछ समझ नहीं आ रहा कि ये संस्कृति आखिर है क्या चीज़? कोई कहता है कि भारत की संस्कृति एक “सामासिक संस्कृति” है…मतलब मिल-जुलकर रहने का संस्कार, सबको अपना बना लेने की आदत। बात अच्छी है। लेकिन सवाल फिर सिर उठा रहा है…अगर ऐसा है तो हमारे समाज़ में दलित, अछूत क्यों रहे हैं? सबको अपनाने वाली संस्कृति में भगवान का दरवाज़ा भी जाति देखकर क्यों खुलता-बंद होता रहा है? अगला सवाल इसी से जन्म लेता है। भारतीय संस्कृति यानि ब्राह्मण की संस्कृति या दलित की संस्कृति? क्या है हमारी संस्कृति?
कोई कहता है कि शील-संकोच और शालीनता हमारी संस्कृति की खासियत है। नग्नता हमें बर्दाश्त नहीं। सच का सामना देखकर बौखलाने वालों के लिए खासतौर पर ये सबसे अहम बात होगी शायद। लेकिन इस खासियत को भी स्वीकार करना आसान नहीं है। क्या आपने पूर्वांचल या बिहार के गांवों में होने वाली शादियां देखी हैं? कोहबर की दीवारों पर क्या चित्र बने होते हैं? शादी के दौरान जो “गारी” गायी जाती है, वो सुनी है? एक से बढ़कर एक गालियां होती हैं, सेक्स से जुड़े ऐसे शब्दों से भरी जिन्हें अश्लील या अपशब्द माना जाता है। और इन्हें घर के भीतर, पूरे परिवार की मौजूदगी में परिवार और पास-पड़ोस की महिलाएं गाती हैं।
होली में कभी बनारस गए हैं? अस्सी का कवि सम्मेलन सुना है? होली पर चंदा मांगने वाले लड़कों का झुंड देखा है? क्या होता है उनके हाथ में? जिन्हें नहीं मालूम उन्हें बता दूं – कपड़े में भूसा भरकर बनाया गया विशालकाय लिंग..कई बार तो पंद्रह-बीस फुट लंबा.. जिसके शीर्ष पर अबीर-गुलाल पोतकर, माला पहनाकर लड़के घुमाते रहते हैं। शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों और सड़कों पर सरेआम..सारी जनता के बीच। इस पर भी कोई हल्ला नहीं मचता। जितने अपशब्द, जितनी गालियां हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में होंगी, मुझे नहीं लगता किसी और देश में होंगी। नगा साधुओं और दिगंबर जैन संप्रदाय के मुनियों के जुलूस यहां सरेआम निकलते हैं। पूरी तरह निर्वस्त्र बाबाओं की चरण रज महिलाएं भी लेती हैं। कोणार्क और खजुराहो की काम-क्रीड़ारत मूर्तियों की बात तो बार-बार होती ही रहती है। ये सारी चीजें किस संस्कृति का हिस्सा हैं?
भारत के प्राचीन ग्रंथों में एक पत्नीव्रत का पालन करने वाले राम की कहानी है, तो कृष्ण की सोलह हज़ार रानियों की भी। सीता और सावित्री हैं, तो द्रौपदी और रंभा-ऊर्वशी भी। आचार्य चतुरसेन का वयम् रक्षाम: पढ़ें तो पता चलेगा कि भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा रक्ष संस्कृति भी रही है, जिसमें स्त्री को भी अपने काम संबंधी आचरण में उतनी ही स्वतंत्रता-स्वछंदता प्राप्त थी, जितनी किसी भी पुरुष को।
एक खासियत ये भी बताई जाती है कि हमारी संस्कृति बड़े-बुजुर्गों का आदर करना सिखाती है। यहां, गांव का एक दृश्य सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। सत्तर बरस के बुजुर्ग बारह साल के एक बच्चे से कह रहे हैं बाबाजी गोड़ लागतानी…बच्चा कहता है खुस रह..। किसी बड़े आदमी के आंगन में सब चौकी या कुर्सी पर बैठे होते हैं और दलित बुजुर्ग नीचे ज़मीन पर उकड़ूं बैठता है। कहां गया बड़े-बुजुर्गों का आदर? सवाल जस का तस है..क्या है भारतीय संस्कृति?
एक दावा ये है कि हमारी संस्कृति नारी का सम्मान करती है। क्या वैसे ही जैसे राम ने बार-बार अग्निपरीक्षा लेकर सीता का किया था? या जैसे सती प्रथा के बहाने मार दी जाने वाली महिलाओं का किया जाता है, उनके नाम पर सती माई का चौरा बनाकर? या जो विधवाएं ज़िंदा रह गयीं, उनके सारे मानवीय अधिकार छीनकर हम करते रहे हैं महिलाओं का सम्मान? या फिर शिक्षा और संपत्ति जैसे अधिकारों से वंचित करके या शादी में किसी वस्तु की तरह उसका दान करके? कैसे करते हैं हम महिलाओं का सम्मान? प्रजनन के लिए अनिवार्य शारीरिक अवस्था के दौरान उसे अस्पृश्य बनाकर या भ्रूण हत्याएं करके? ये तो वो भारतीय संस्कृति नहीं हो सकती, जिसकी रक्षा के लिए हमारी भुजाएं फड़कने लगती हैं।
कहा ये भी जाता है कि भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक उन्नति को भौतिक विकास से ज़्यादा अहमियत दी जाती है। यहां तो कई सवाल हैं। अगर ये सच है, तो आध्यात्मिक विकास से जुड़ी जगहों पर धन-दौलत का फूहड़ प्रदर्शन क्यों होता है? ज़्यादातर आध्यामिक गुरु और मठ-मंदिर सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात से लदे-फंदे क्यों रहते हैं? मठों – मंदिरों और शंकराचार्य जैसी पदवियों पर कब्जे के लिए लड़ाइयां क्यों होती हैं? सवाल ये भी है कि किसकी आध्यामिक उन्नति पर जोर देती है हमारी संस्कृति? ज्ञान की पुस्तकों के अध्ययन, मनन, चिंतन का अधिकार भी जहां सबको नहीं दिया गया, वहां हम किस मुंह से खुद को आध्यामिक विकास की संस्कृति का वाहक घोषित करते हैं? शंबूक वध की कथा क्या किसी विदेशी चैनल से आयी थी?
धूमिल ने लिखा था, लोहे का स्वाद लोहार से नहीं, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है…मुझे लगता है भारतीय संस्कृति का असली अर्थ समझने के लिए हमें उन ग़रीब मज़दूरों-किसानों के पास जाना होगा, जो अपनी ज़मीन को बचाने के लिए जान पर खेल रहे हैं या खुदकुशी की मज़बूरी से लड़ रहे हैं। उन दलितों के पास जाना होगा, जो आज भी सवर्णों के कुओं से पानी लेने पर दंडित होते हैं। उन अजन्मी बेटियों की चीत्कार सुननी होगी, जो अपनों के हाथों हर रोज़ मारी जाती हैं। उन बच्चों की आंखों में झांकना होगा, जो रेलवे स्टेशनों और चौराहों पर खड़े आलीशान कारों में बैठे लोगों को सूनी निगाहों से टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं। वही हमें बताएंगे कि क्या है भारतीय संस्कृति और कौन हैं उसके सच्चे पहरेदार! किसकी रोटी का आटा, किसके पसीने से गूंदा गया है और उस पर चुपड़ा घी किसके संस्कारों की आंच पर पका है! भारतीय संस्कृति को समझने की कोशिश में फिलहाल मैं तो इतना ही बूझ सका हूं। आप अगर इस मूरख को कुछ समझा सकें, तो बड़ी मेहरबानी!

आतंकवाद का एक चेहरा यह भी...




हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों की एक पुरानी तरकीब है जो लगभग हमेशा कामयाब होती है. साक्षर परन्तु अल्प-शिक्षित निम्न मध्य-वर्ग और मध्य-वर्ग को अपील करने वाले कुछ वाक्यांश, कविताओं के टुकड़े या ऎसी ही कोई अन्य शब्दावली जनता के बीच फेंक कर उसे तब तक दुहराते रहते हैं जब तक वह जनता के एक हिस्से की चेतना का हिस्सा न बन जाय. बाद में जनता के इसी हिस्से का उपयोग जनता की एकता को तोड़ने के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं के रूप में किया जाता है. 'राम जन्म-भूमि', 'राम-सेतु', 'बच्चा-बच्चा राम का...........' ,'राम लला हम आयेंगे...', 'भय बिनु होय न प्रीति' आदि कुछ शब्दावलियाँ उदाहरण के तौर पर उद्धृत की जा सकती हैं. एक अन्य ख़तरनाक बात यह है कि मीडिया, ख़ास तौर पर दृश्य मीडिया का बड़ा हिस्सा भी जाने-अनजाने इन ख़तरनाक जुमलों को जनचेतना का हिस्सा बनाने में अहम भूमिका अदा करता दिखाई देता है . मीडिया का एक बहुत छोटा हिस्सा अगर इस झूठ को ध्वस्त करना भी चाहे तो उसका प्रयास चंद अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों और मध्य-वर्ग के एक अत्यंत छोटे हिस्से तक ही सीमित रह जाता है जिनकी आम जनता तक इस कटु सत्य को पहुंचाने की न तो इच्छा होती है न ही क्षमता. ऐसा ही एक मन्त्र नरेंद्र मोदी ने दिया था:- 'सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं पर सारे आतंकवादी मुसलमान ही हैं'. परोक्ष रूप से यह कहने की कोशिश थी कि इस्लाम आतंकवाद का पोषक है और हिंदुत्व का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है. परन्तु सत्य यह है कि हिन्दुत्ववादियों के आतंकवादी कारनामे पूरे देश में होते रहे हैं. ये अलग बात है कि मीडिया ने उन पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था.

पिछली दीपावली से ठीक पहले(१७/१०/२००९) गोआ में मारगाओ में एक स्कूटर मे रखे बम के धमाके में मालगोंडा पाटिल नाम के एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई और योगेश नाइक नामक एक अन्य व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया.सान्कोले में एक अन्य ट्रक में एक बम बरामद हुआ. यह ट्रक नरकासुर उत्सव के लिए ४० नौजवानों को ले जा रहा था. नरकासुर उत्सव गोआ में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है. दोनों ही मामलों में संदेह की सुई एक हिन्दुत्ववादी संगठन सनातन संस्था पर आकर टिकी. सनातन संस्था नरकासुर को बुराई का प्रतीक बता कर इस उत्सव का विरोध करती रही है. इधर मालेगांव धमाकों से जुड़े संगठन अभिनव भारत से भी सनातन संस्था के तार जुड़े होने की पुष्टि गोआ पुलिस ने कर दी. साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत अभिनव भारत के ११ सदस्यों को सितम्बर २००८ के मालेगांव धमाकों के सम्बन्ध में गिरफ्तार किया गया था. इसी सनातन संस्था का हाथ ठाणे के गडकरी रंगायतन में जून २००८ में हुए बम विस्फोटों में भी पाया गया. महाराष्ट्र के एण्टी टेररिस्ट स्क्वैड ने इस सम्बन्ध में जिन लोगों को गिरफ़्तार किया वे सब हिन्दू जनजागरण समिति के सदस्य थे जो सनातन संस्था का ही एक अनुषांगिक संगठन है. ये ही लोग पनवेल, वाशी, और रत्नागिरी के विस्फोटों में भी लिप्त पाए गये.
नांदेड, मराठवाडा में सिंचाई विभाग के कर्मचारियों की कालोनी में हुए धमाके के बाद जो तथ्य सामने आये वे भी मीडिया,विशेषकर हिन्दी मीडिया में अधिकतर उपेक्षित ही रहे. ये धमाका विभाग के एक ऐसे अवकाशप्राप्त कर्मचारी के घर में हुए थे जो लम्बे समय से एक हिन्दुत्ववादी संगठन से जुड़ा हुआ था. बाद की जांच में उसी घर में एक और बम भी बरामद हुआ. यही नहीं इस धमाके में मारे गये हिमांशु के घर से उस क्षेत्र की कई मस्जिदों के नक़्शे और स्थानीय मुस्लिमों द्वारा पहने जाने वाली पोशाकें भी बरामद हुईं. स्थानीय मुस्लिमों द्वारा पहने जाने वाली टोपियों का भी एक संग्रह उसी घर में मिला. एक हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ता के घर से इन चीजों की बरामदगी के निहितार्थ समझने के लिए किसी दिव्यदृष्टि की आवश्यकता नहीं है.पीयूसीएल और धर्मनिरपेक्ष नागरिक मंच के सदस्यों की एक जांच रिपोर्ट के अनुसार नांदेड के पुलिस महानिरीक्षक सूर्यप्रकाश गुप्ता ने इस बात की पुष्टि की कि लक्ष्मण राजकोण्डवार के घर से एक जीवित पाइप बम भी बरामद हुआ था और सारे ही आरोपी बजरंगदल से सम्बंधित थे. सूर्यप्रकाश गुप्ता का यह भी कहना था कि दरअसल कोण्डवार का घर बम बनाने का एक अड्डा था. महाराष्ट्र पुलिस ने मालेगांव धमाकों के सम्बन्ध में संघपरिवार से जुड़े कई संगठनों के कार्यकर्ताओं और सेना के कुछ सक्रिय और अवकाशप्राप्त सदस्यों की भूमिका को भी उजागर किया है . और महाराष्ट्र ही नहीं आतंकवादी गतिविधियों में इन संगठनों की भूमिका के प्रमाण मध्यप्रदेश के भिंड, उत्तरप्रदेश के कानपूर, तमिलनाडु के तेनकासी और केरल के कन्नूर तक बिखरे पड़े हैं. उत्तरप्रदेश में अलीगढ़ के निवासी भी गोमती एक्सप्रेस को रोक कर उसके मुस्लिम यात्रियों पर किये गये जानलेवा हमलों को अभी तक भूले नहीं हैं. नाथूराम गोडसे से चल कर श्रीकांत पुरोहित तक बहती आई हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों की इस धारा से यह सबक लेने की ज़रूरत है कि आतंकवाद किसी भी समुदाय या धर्मं के चोगे में आये उसका लक्ष्य एक ही होता है- आम जनता के भाईचारे को ध्वस्त करना. और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है.

गुजरात में घृणा की राजनीति का ब्‍यौरा देती 'फाइनल सॉल्‍यूशन'

आज हम 'बर्बरता के विरुद्ध' पर राकेश शर्मा की फिल्‍म 'फाइनल सॉल्‍यूशन' प्रस्‍तुत कर रहे हैं। यह फिल्‍म घृणा की राजनीति का बयान है। गुजरात में फिल्‍माई गयी फाइलन सॉल्‍यूशन 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के ब्‍यौरे के जरिए भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के बदलते चेहरे का विवरण देती है। फाइनल सॉल्‍यूशन 27 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्‍सप्रेस ट्रेन में 58 हिंदुओं के जलने के बाद की गई नृशंस हिंसा की पड़ताल करती है। इस घटना की ''प्रतिक्रिया'' में, लगभग 2000 मुसलमानों को बर्बरता से मार डाला गया था, सैकड़ों महिलाओं का बलात्‍कार किया गया और और दो लाख से ज्‍यादा परिवारों को उनके घरों से बेदखल कर दिया गया था। नाजीवाद के इतिहास से संदर्भ लेते हुए, फिल्‍म का शीर्षक, राकेश शर्मा के शब्‍दों में, 'भारतीय फासीवाद' को उजागर करता है।
सेंसर बोर्ड ने भारत में इस फिल्‍म पर कई महीनों तक प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन प्रतिरोध में देशभर में सैकड़ों स्‍क्रीनिंग और लगातार कैंपेन के बाद उसे मजबूरन अक्‍टूबर 2004 में यह प्रतिबंध खत्‍म करना पड़ा। इस फिल्‍म को अब तक कई राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिल चुके हैं।

फिल्‍म के निर्देशक राकेश शर्मा का परिचय- इन्‍होंने अपना फिल्‍म/टीवी कैरियर 1986 में श्‍याम बेनेगल के डिस्‍कवरी ऑफ इंडिया के सहायक निर्देशक के रूप में शुरू किया था। इनकी पहली स्‍वतंत्र फिल्‍म Aftershocks: The Rough Guide to Democracy को भी कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं। यह 100 से अधिक अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोहों में प्रदर्शित की जा चुकी है।
फाइनल सॉल्‍यूशन और आफ्टरशॉक्‍स : दि रफ गाइड टू डेमोक्रेसी दोनों ही फिल्‍मों को सरकार द्वारा संचालित मुंबई इंटरनेशनल फिल्‍मफेस्‍ट (एमआईएफएफ) ने क्रमश: 2004 और 2002 में प्रदर्शित करने से इंकार कर दिया गया था।

हमारा प्रयास रहेगा कि इस तरह की सारी फिल्‍में 'बर्बरता के विरुद्ध' के जरिए आप तक पहुंचाएं। यदि आपके पास फासीवाद, सांप्रदायिकता विरोधी फिल्‍मों, ऑडियो, पुस्‍तकों की कोई सूची हो तो हमें जरूर उपलब्‍ध कराएं।



'अब संसार में ''हिन्‍दू राष्‍ट्र'' नहीं हो सकता...' — गणेशशंकर विद्यार्थी

हमारे देश में सांप्रदायिकता से लड़ने वाले अग्रजों की कतार में निस्‍संदेह सबसे ऊपर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम लिया जा सकता है। वे हमें याद दिलाते हैं कि अपने विचारों के लिए जीना क्‍या होता है और प्रतिबद्धता के मायने क्‍या होते हैं। एक ऐसे दौर में जबकि मानवता के खिलाफ मानवद्रोही सांप्रदायिक ताकतें नये सिरे से महाविनाश की तैयारियों में लगी हैं, और दूसरी ओर इसके विरोध की प्रतिबद्धता का वैचारिक ठोसपन कमजोर हो रहा है, यह जरूरी हो जाता है कि प्रतिबद्धता के उदाहरण के तौर पर विद्यार्थीजी जैसे लोगों को इतिहास के पन्‍नों से निकाल कर आंखों के ऐन सामने रखा जाए, ताकि उनके विचारों की प्रेरणा हमें वर्तमान और भविष्‍य की चुनौतियों के लिए मार्ग दिखाती रहें....
प्रस्तुत है उनका यह छोटा सा उद्धरण...'अब संसार में ''हिन्दू राष्ट्र'' नहीं हो सकता...'‍‍

आज कुछ लोग ''हिन्‍दू राष्‍ट्र हिन्‍दू राष्‍ट्र'' चिल्‍लाते हैं। हमें क्षमा किया जाये—यदि हम कहें—नहीं; हम इस बात पर जोर दें कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं। और उन्‍होंने अभी तक ''राष्‍ट्र'' शब्‍द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्‍यवक्‍ता नहीं, पर अवस्‍था हमसे कहती है कि अब संसार में ''हिन्‍दू राष्‍ट्र'' नहीं हो सकता, क्‍योंकि राष्‍ट्र का होना उसी समय सम्‍भव है जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो। और यदि मान लिया जाये कि आज भारत स्‍वाधीन हो जाये या इंग्‍लैंड उसे औपनिवेशिक स्‍वराज्‍य दे दे, तो भी हिन्‍दू ही भारतीय राष्‍ट्र के सब कुछ न होंगे। और जो ऐसा समझते हैं—ह्रदय से या केवल लोगों को प्रसन्‍न करने के लिए—वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुंचा रहे हैं।
—साभार राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ से प्रकाशित 'चुनी हुई रचनाएं' गणेशशंकर विद्यार्थी