मुंबई में हाल ही में हुए बम धमाकों के बाद सुब्रमणियम स्वामी ने डीएनए में सांप्रदायिक नजरिए से और घृणा फैलाने वाला एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था 'इस्लामी आतंकवाद का खात्मा कैसे किया जाए - एक विश्लेषण'. इस लेख पर प्रबुद्ध नागरिकों ने त्वरित एवं तीखी प्रतिक्रिया की। फिल्मकार राकेश शर्मा ने डीएनए में ही स्वामी के इस लेख का जवाब लिखा। हम अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी अनुवाद 'बर्बरता के विरुद्ध' के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी ताक़ते अब स्वामी के समर्थन में उतर आई हैं और उनके के इस लेख को सही बताते हुए टिप्पणियां, पत्र, ईमेल आदि लिखने का अभियान चला रखा है। सभी प्रगतिशील नागरिकों से अनुरोध है कि वे भी इस अभियान का जवाब दें और इस लेख के अंत में दिए गए लिंक, ईमेल पतों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराएं।
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(17
जुलाई 2011, रविवार को डी एन ए में प्रकाशित)
मुम्बई की 'स्पिरिट' और भारत की आत्मा
**राकेश शर्मा* *
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सुब्रमणियम स्वामी के घृणा फैलाने वाले लेख(डी एन ए, 16 जुलाई) का प्रत्युत्तर
प्रसिद्धि
के भूखे नेता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए नीतिगत विफलताओं, रीढ़विहीन
सरकारों की कठोर विवेचनाओं और इस्तीफ़ों की माँग की रट लगाए हुए हैं। सुब्रमणियम
स्वामी जैसे लोग हमें प्रेरित करते हैं कि हम आतंक की महाविपत्ति का जवाब हिन्दुओं
की तरह दें न कि भारतीयों की तरह, वो हमें आगाह करते हैं कि तालिबान हमारी चौखट तक
आ गया है, वो अपने पुराने सिद्धांतों पर जमी धूल को साफ़ करके और पुन: चक्रित करके
हमें पेश करते हैं तथा हमें वस्तुत: हिन्दू तालिबान में रूपान्तरित होने की सलाह
देते हैं।
इनमें
से हरेक ऐसा भुक्तभोगियों के नाम पर करता है! अपनी राय, सिद्धांत और उपचार
पेश करते वक़्त इनमें से हरेक शोकाकुल परिवारों के लिए आँसू बहाता है। पिछले 10
वर्षों में नफ़रत की राजनीति और उसके फ़ौरी और दीर्घकालिक भीषण दुष्परिणामों पर
केन्द्रित फिल्मों के निर्माता के तौर पर मैने ऐसे बहुतेरे लोगों को चित्रित किया
है जिनकी आतंक और संगठित हिंसा के कृत्यों द्वारा दुनिया ही उजाड़ दी गयी है। S-6 में
मारे गये लोगों के परिवारों की धुँधली तस्वीरें जिन पर बाद में 'कारसेवक' का ठप्पा
लगा दिया गया और जिनकी त्रासदियों को बेशर्मी से वोटों के लिए भुनाया गया एवं 2002
के गुजरात नरसंहार में मुस्लिम परिवारों पर सबसे घृणित स्तर की बर्बरता और ज़ुल्म
ऐसी अनगिनत कहानियों में से हैं जिनके दस्तावेज़ मैंने बनाये हैं। मैंने 26/11 के
आतंकी हमले के बाद के घटनाक्रम और उसके पहले 2006 में मुम्बई के सिलसिलेवार बम
धमाकों को भी चित्रित किया है। मैंने ऐसे एक दर्जन मुस्लिम परिवारों से बातचीत की
है जिनको कसाब द्वारा सी एस टी/ वी टी स्टेशन पर मारा गया था और बीसियों हिन्दू भुक्तभोगियों
का अस्पताल और उनके घरों में इण्टरव्यू लिया है। इण्डियन मुजाहिद्दीन के
बमों से प्रभावित लोगों के साथ ही साथ मालेगांव में अभिनव भारत के बमों का
दुष्परिणाम भोगते लोगों की व्यथा भी मैंने अपने कैमरे में कैद की है।
ऐसे
सभी लोगों से जो इस समय ज़हर उगल रहे हैं और भुक्तभोगियों के नाम पर असहिष्णुता
फैला रहे हैं, मैं यह कहना चाहता हूँ कि प्रभावित हिन्दू एवं मुस्लिम परिवारों के
बीच हफ़्तों और महीनों बिताने के दौरान मुझे ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो
असहिष्णुता का पालन करता हो या फैलाता हो या दूसरी कौम के खिलाफ़ नफ़रत की भावना
रखता हो। उनमें से सभी नफ़रत की भर्त्सना करते हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है
जो प्रत्यक्ष तौर पर या फिर उनके नाम पर बदले की ख़्वाहिश रखता हो। लेकिन उनमें
से कोई भी इसको नहीं भूला है या फिर अपनी क्षति को दार्शनिक तौर पर स्वीकार कर
पाया है। निरपवाद रूप से अधिकांश में मैंने न्याय की एक प्रबल इच्छा देखी कि
दोषी को कड़ी से कड़ी सजा मिले तथा एक उत्कट कामना देखी कि किसी को भी ऐसी
दुर्गति न झेलनी पड़े चाहे वह उनकी कौम का हो या फिर किसी भी कौम का हो। इंसाफ़
शब्द मुझे हमेशा ही सुनाई दिया लेकिन नफ़रत कभी नहीं! कइयों
में मैने आक्रोश देखा लेकिन निरपवाद रूप से उन लोगों के खिलाफ़ जो उनकी त्रासदियों
को भुनाते हैं, चाहे वह उनकी अपनी कौम के भ्रष्ट सदस्य हों जो राहत सामग्री में
हेर फेर करते हैं या फिर ह्रदयहीन नौकरशाही और असंवेदनशील मीडिया रिपोर्टरों के
खिलाफ़, लेकिन ज़्यादातर मामलों में नेताओं के खिलाफ़ जो उनकी त्रासदियों को
कुटिलता से भुनाने की कोशिश करते हैं। 'हमारी लाश पर वोट की रोटी सेंकते हैं ये
लोग' - मैंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही भुक्तभोगियों को ऐसा कहते बार-बार
सुना है।
मैंने उनके धैर्य,साहस,संवेदनशीलता और इंसानियत की भूरि-भूरि प्रशंसा की
है। उनको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने की बजाय उल्टा मैंने उनसे सीखा है। मैंने इसे
उनकी आँखों में देखा है, उनकी वाणी में सुना है, उनकी आवाज़ में महसूस किया है और
उनकी कार्रवाहियों में परिलक्षित होते देखा है। इसलिए मुझे यकीन है कि भले ही
मुट्ठी भर कुछ ऐसे लोग हों जो नफ़रत और असहिष्णुता में विश्वास करते हों, लेकिन
आम जनता और 'भुक्तभोगी' इसमें विश्वास नहीं करते और हमारे देश का सामाजिक
ताना-बाना और उसमें अन्तर्निहित सामाजिक लोकाचार तथा सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व
के मूल्य इतने मज़बूत हैं कि उनको नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसलिए मैं अभी भी
यह विश्वास करता हूँ कि नफ़रत की राजनीति कभी भी भारत में प्रतिनिधि और निर्णायक
ताकत नहीं बन सकती।
आज
का दौर एक भयानक दौर है। एक नागरिक के तौर पर हम सभी एक गहरा आक्रोश, निराशा और
लाचारी महसूस करते हैं। ऐसे में धीरज खोना, संदर्भ से कट जाना और अप्रासंगिक
जुमलेबाजियों की चपेट में आना आसान है। लेकिन यह आक्रामकता को बढ़ावा देने,
राजनीतिक बहसबाजी और हालिया और मध्यकालीन इतिहास को फिर से लिखने या विश्लेषण
करने का समय नहीं है। यह हम सभी के एकजुट होने और उन सभी के खिलाफ़ एक ही सुर में
आवाज़ उठाने का वक़्त है जो आतंक को अंज़ाम देते हैं।
आतंक
फैलाने का मक़सद है हमें बाँटना, हमारे जोशो-खरोश को ठंडा करना, तर्कणा को नष्ट करना,
सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करना और हमारी समृद्ध विविधता – जो हमें
सबसे प्राचीन सभ्यता और आवेगमय लोकतंत्र बनाती है, उसको तहस-नहस करना। यदि हम
नफ़रत, धर्मान्धता और असहिष्णुता के सामने घुटने टेक देंगे या यदि हम अपनी
नागरिक आज़ादी पर अंकुश लगायेंगे, अपनी किन्हीं भी संवैधानिक स्वतंत्रताओं और
अधिकारों को निलंबित करेंगे या किसी संप्रदाय विशेष को विलेन बनाकर उनपर निशाना
साधेंगे तो आतंकवादी अपने मक़सद में क़ामयाब हो जायेंगे।
किसी
भी प्रकार का ऑनलाइन उन्माद, टीवी उपदेश, इस्तीफ़े की माँग या कोई भी बेमतलब की
हरकत कोई वास्तविक बदलाव नहीं ला सकती यदि हम नफ़रत को पलने और फलने फूलने का
मौका देते रहेंगे। जब तक नफ़रत मौजूद है, जब तक हम नफ़रत फैलाने वालों को बर्दाश्त
करते रहेंगे, जब तक हम असहिष्णुता की राजनीति का बहिष्कार नहीं करते, तब तक शायद
शान्ति के बारे में सोचना बेमानी है। नफ़रत की राजनीति केवल और भी ज़्यादा नफ़रत
ही पैदा कर सकती है;
कोई
बावला ही ऐसा विश्वास कर सकता है कि नफ़रत का गहराता चक्र शान्ति और समृद्धता की
ओर ले जायेगा और एक शक्तिशली लोकतंत्र एवं सौहार्दपूर्ण समाज को मज़बूत बनायेगा।
कृ्पया नफ़रत को न बढ़ावा दें।
आइये
हम नफ़रत फैलाने वालों की निन्दा करें चाहे वो किसी भी संप्रदाय, जाति अथवा पंथ
के हों। आइये हम यह माँग करें कि सभी धमाकों और हमलों के दोषियों को सजा मिले।
लेकिन सबसे पहले आइये हम आत्मचिंतन करें, अपने अंदर झाँक कर देंखें और अपने
पूर्वाग्रहों, असहिष्णुता और पक्षपातों को दूर करें। जब हम एक व्यक्ति, एक कौम,
समाज और राष्ट्र के रूप में नफ़रत से छुटकारा पा लेंगे तभी हम शान्ति की कल्पना
कर सकते हैं। नफ़रत के इस दुष्चक्र से निपटने की दिशा में यह पहला कदम होगा। आइये
हम उनसे सीखें जो भुक्तभोगी हैं लेकिन फिर भी नफ़रत नहीं पालते और उन सभी को
खारिज़ करते हैं जो उनके नाम पर नफ़रत को फैलाते हैं और उसको बढ़ावा देते हैं!
यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(मेरे
अनुसार यही मुम्बई की सच्ची 'रिज़ीलिएण्ट स्पिरिट' और भारत की आत्मा का सारतत्व
है)
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डॉ. सुब्रमणियम स्वामी और डीएनए के संपादक के
नाम ईमेल भेज कर स्वामी के लेख की निंदा करें और नीचे दिए गए लिंक्स पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें:
सुब्रमणियम स्वामी : swamy39@gmail.com
अजय सिन्हा, संपादक, डीएनए : asinha@dnaindia.net
http://blogs.wsj.com/indiarealtime/2011/07/27/swamy-op-ed-stokes-furor-at-harvard/
http://www.thecrimson.com/article/2011/7/27/swamy-harvard-india-petition/
सुब्रमणियम स्वामी : swamy39@gmail.com
अजय सिन्हा, संपादक, डीएनए : asinha@dnaindia.net
http://blogs.wsj.com/indiarealtime/2011/07/27/swamy-op-ed-stokes-furor-at-harvard/
http://www.thecrimson.com/article/2011/7/27/swamy-harvard-india-petition/
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