भगवा जनसांख्यिकी के बारे में



मोहन राव
(ईपीडब्‍ल्‍यू, वॉल्‍यमू XLV नं. 41 अक्‍टूबर 09, 2010
से साभार)

हाल ही में मैंने इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ हेल्थ सर्विसेज़ को एक आलेख भेजा जो इस बात की पड़ताल करता है की किस प्रकार नव-माल्थसवादी जनसांख्यिकी विमर्श और नव-उदारवादी नीतियाँ; अस्मिता और कट्टरपंथ के विमर्श में और निश्‍चय ही अल्पसंख्यकों पर प्राणघातक हमलों में - जैसा की २००२ में गुजरात में हुआ - योगदान करते हैं. अब यह लगता है की यह  भोलेपन की ही निशानी थी की मुझे इस बात का एहसास नहीं हुआ की तथाकथित हिन्दू विमर्श कहॉं तक पहुँच गया है. मुझे हैरानी तब हुई जब मेरे आलेख के रेफरी ने लिखा :
हिन्दू साम्प्रदायिकता का ज़िक्र सही नहीं है...गुजरात के सन्दर्भ में "फासीवाद" और  "नरसंहार" जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन अत्यंत गंभीर शब्दों की  अपर्याप्त समझ और भारत में हिन्दू-मुस्लिम समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी संतुलन के अभाव को दर्शाता है. अगर लेखक को इन परिधिगत मुद्दों को उठाना था, तो लेखक उस समय बड़े पैमाने पर हुए नस्लीय सफाए (ethnic cleansing ) और हिन्दू महिलाओं के अपहरण और धर्मांतरण का संदर्भ दे सकता था. लेखक को कम से कम इस बात की व्याख्या करनी चाहिए थी कि किस प्रकार कई स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में गुजरात के मुसलमानों ने बड़ी संख्या में एक ' हिन्दू धार्मिक पार्टी' को वोट दिया था. ऐसे संवेदनशील मुद्दे को छेड़ते वक़्त संतुलन बरतने के लिए लेखक को ज़िक्र करना चाहिए था की किस प्रकार जम्मू-कश्मीर तथा देश के कई अन्य हिस्सों में पिछले कई वर्षों के दौरान इससे कई गुना अधिक निर्दोष हिन्दुओं कि हत्या कि गयी थी जिसमें मुंबई के सिलसिलेवार बम धमाके तथा हिन्दुओं के पवित्रतम मंदिरों में भक्तों पर दुस्साहसी हमले शामिल हैं. तथाकथित हिंदू 'फासीवाद' 'नरसंहार' संबंधी बेहद आपत्तिजनक दलीलों में पड़ने के बजाय लेखक को हमारे सबसे उत्‍कृष्‍ट जनसंख्‍याविदों में से एक द्वारा 22001 कि जनगणना के आंकड़ों के एक सजग पश्च विश्‍लेषण ( regression analysis ) का ज़िक्र करना चाहिए था जो निर्णायक रूप से यह सिद्ध करता है कि भारत में मुसलामानों की जनसंख्या वृद्धि की दर हिन्दुओं और कैथोलिक बहुसंख्या वाली भारतीय ईसाईयों कि तुलना में कहीं अधिक है. 1
यह बात अलग है कि रेफरी कि यह रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा है. लेकिन इसने पत्रिका के संपादक को निश्चित ही क़ायल कर दिया. संपादक को भेजे अपने जवाब में मैंने लिखा कि रेफरी कि कुछ टिप्पणियाँ मेरे द्वारा दी गयी दलील के सन्दर्भ में अप्रासंगिक हैं जबकि कुछ इसको ही सिद्ध करती हैं. मैंने लिखा कि उसमें तथ्यगत त्रुटियाँ थीं: आधिकारिक तथा नागरिक ग्रुपों दोनों द्वारा तैयार की गयी गुजरात नरसंहार से सम्बंधित किसी भी रिपोर्ट में बड़े पैमाने पर नस्ली सफ़ाए का तथा हिन्दू महिलाओं के अपहरण व धर्मान्तरण का कोई ज़िक्र नहीं है. दूसरी ओर अपने आप को हिन्दू कहने वाले ऐसे ग्रुप थे जिन्होंने इस नरसंहार के पहले ऐसी अफवाहें उड़ायीं और जिन्‍होंने राज्य की मिलीभगत से इसकी शुरुआत की तथा इसमें हिस्सा लिया. जनगणना तथा हमारे उत्कृष्टतम जनसांख्यिकीविद्  का ज़िक्र भी उतना ही संदेहास्पद था. वही उत्कृष्टतम जनसांख्यिकीविद इस बात का ज़िक्र करना  "भूल" गया था कि मुसलमाओं की जन्म दर में गिरावट हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक तेज़ थी (कृष्णाजी एवं जेम्स २००५).

ख़तरनाक मिथक

ज़ाहिरा तौर पर बात महज़ तथ्यों कि नहीं बल्कि राजनीति की है. तथाकथित मुस्लिम कट्टरपंथियों के आतंकवादी कारनामों तथा गुजरात में राज्य प्रायोजित नरसंहार के बीच सम्बन्ध मेरी समझ से परे है. मेरे आलेख में इस बात को समझने की कोशिश की गयी थी कैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कट्टरपंथी जनसंख्या कि दलील का इस्‍तेमाल भय फैलाने और नफरत भड़काने के लिए करते हैं. यह बात सर्वविदित है कि कभी-कभी फासीवादी चुनाव भी जीत लेते हैं - हिटलर से लेकर मिलोसेविच से लेकर मोदी तक. वे सभी भय कि राजनीति करते हैं जिसमें यह बताया जाता है कि "वो"  "हमसे" ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं. मारथा नुस्स्बाम (नुस्स्बाम २००५) ने इसका दस्तावेजीकरण भी किया है कि गुजरात नरसंहार में इसने कम महत्‍वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई थी (नुस्‍स्‍बाम 2007). जैसा कि जैफरी और जैफरी ने दिखाया है कि ''कुछ खतरनाक मिथकों'' को 'सहज बोध' के भेष में प्रस्‍तुत करने वाली यह "भगवा जनसांख्यिकी" भारत में स्थायी परिघटना बन चुकी है। (जैफरी और जैफरी २००५:३२५-५९).

बेशक, मैं ऐसे खतों का आदी हो चुका हूँ जो मीडिया में कट्टरपंथी प्रचारकों को चुनौती देते हुए मेरे लेखों के ज़वाब में मुझसे इस्लाम कबूल करने, और अपना नाम बदल लेने के लिए कहते हैं,2 और मुझे हिन्दुस्तान और हिन्दुओं का दुश्मन कहते हैं. मुझे ऐसे भी पोस्ट कार्ड मिले है जिनके लेखकों को यह उम्‍मीद है कि पाकिस्‍तान जाने पर मेरी पत्‍नी के साथ बलात्‍कार कर दिया जाएगा और उसका धर्मांतरण कर दिया जाएगा। कुछ अन्य यह तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि मुसलमान यूरोप  पर कब्ज़ा करना चाहते हैं और वह ज़ल्द ही अरबिस्तान कहलाएगा.3


इन झूठों का इस्तेमाल, इस गुस्से, इन गालियों, दूसरों को चुप कराने की इस प्रवृत्ति को कैसे समझा जा सकता हैसंघ परिवार के समर्थकों द्वारा अपने आलोचकों को चुप कराने की प्रवृत्ति तो समझ में आती है - सभी फासीवादी ग्रुपों की भांति वे भी कभी हिंसा के द्वारा तो कभी हिंसा की धमकी के द्वारा भय पैदा करके काम करते हैं.  लेकिन उतने ही कट्टर और उतने ही अतार्किक अन्य पत्र लेखकों को कैसे समझा जा सकता है? क्या इसकी एक तर्कसंगत व्याख्या संभव है? भगवा जनसांख्यिकी की इतनी व्यापक अपील कैसे है? इसमें कई जटिल उपादान हैं जिनमें से कुछ की छानबीन का प्रयास मैंने इस लेख में किया है. 

जनसांख्यिकी का साम्प्रदायिकीकरण

भगवा जनसांख्यिकी गंभीर पद्धतिगत, दार्शनिक तथा आनुभविक समस्यायों का शिकार है. यह इस मान्यता पर आधारित है की भारत में एक एकसमान और समरूप मुसलमान कौम है और उतनी ही विभेदरहित हिन्दू कौम मौजूद है, जो की सरासर गलत है. यह निहायत गैर-ऐतिहासिक भी है: यह समय के साथ-साथ इन एकरूप कौमों में जनसंख्या के रुझान को नहीं देखती; न ही यह निर्धारक कारकों में अंतर को देखती है, जैसे कि भारत में आज मुसलामानों के प्रति भेदभाव की वजह से पारिवारिक  अर्थव्यवस्था में अंतर आ जाता है जिसके बहुत ही सशक्त जनसांख्यिकी परिणाम हो सकते हैं. यह इन तथ्यों को भी नज़रंदाज़ करती है कि अनुपात के हिसाब से "हिन्दुओं" में  बहुविवाह4 का प्रचलन 'मुसलामानों" कि अपेक्षा अधिक है. न ही यह देखा जाता है कि दक्षिण भारत के मुसलामानों की जन्म दर आम तौर पर बीमारू राज्यों के हिन्दुओं कि तुलना में कम है. आंकड़े यह भी बताते हैं कि मुस्लिम महिलाओं में गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल 1990  के दशक में हिन्दू महिलाओं कि अपेक्षा अधिक तेज़ी से बढ़ा है. (कृष्णाजी और जेम्स 2005) . 

जनसांख्यिकी के इस साम्प्रदायिकीकरण का लंबा इतिहास रहा है. 1909 में ही यू. एन. मुखर्जी ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक थाहिन्दू: एक मृतप्राय नस्ल, जिसने हिन्दू महासभा - राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जनक संगठन - के कई हिस्सों और प्रकाशनों को प्रभावित किया. यह पुस्तक कई बार पुनर्मुद्रित हुई और यह एक व्यापक मांग को पूरी करती प्रतीत हुई; इसने हिन्दू साम्प्रदायिकता के उद्भव में मदद की और उसका पोषण किया. इसकी विशेष अपील उन हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों में थी जो मुसलमानों और निम्न जातियों द्वारा उठायी गयी अलग प्रतिनिधित्व की मांग के प्रत्युत्तर में एक एकाश्‍मी हिन्दू सम्प्रदाय बनाने के लिए चिंतित थे. मुसलामानों को लेकर चिंता ज़ाहिर करना विविध और प्रायः वैषम्य भाव रखने वाली जातियों को एक सम्प्रदाय के रूप में एक साथ जोड़ने और जातियुक्त समाज के संरचनात्मक विभाजन को ख़त्म करने का एक तरीका था. वास्तव में ऐसा पाया गया है कि:

हिन्दू साम्प्रदायिकता पर इसका (पुस्तक का) अधिक प्रत्यक्ष असर पड़ा क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता अब संख्याओं को लेकर चिंतामग्‍न थी...  निम्न जातियों द्वारा स्‍वयं को हिन्दू कहने से मना करने की संभावना एक चिंता का विषय था जिसने हिन्दू साम्प्रदायिकता के उदय को प्रेरित किया. (दत्ता 1999:18)".   

हालांकि यह पुस्तक त्रुटियों और भविष्य का भयावह चित्र प्रस्तुत करने वाली बेसिर-पैर की भविष्यवाणियों से सराबोर थी, फिर भी इसने ''एक जनसांख्यिकी सहजबोध दिया जो विलुप्‍त हो जाने के रूपक का काम करता था।'' (दत्ता 1999:23).5 साथ ही बुनियादी तौर पर हिन्दू सांप्रदायिक यह मानते थे और अभी भी मानते हैं कि एक राष्ट्र की परिभाषा "सांस्कृतिक" रूप से एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में दी जानी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे मुस्लिम साम्प्रदायिक एक इस्लामिक पाकिस्तान की शुद्धता पर यकीन करते थे5. दोनों ही धर्मों की साम्प्रदायिक ताकतों ने बड़ी ही सफाई से जनसांख्यिकी डर पैदा करके भारतीय समाज की औपनिवेशिक परिभाषा को पुख्ता किया. उस दौर की जनगणनाओं ने भी इसमें योगदान किया. गौर करने वाली बात यह है कि यह विमर्श एक संघर्षपूर्ण राजनीतिक माहौल में पैदा हुआ, जब उपनिवेशवाद को चुनौती दी जा रही थी, राजनीतिक वर्गों का निर्माण हो रहा था, श्रमिक वर्ग सुदृढ़ हो रहा था एवं आरंभिक नारीवादी विचारों कि ज़मीन तैयार हो रही थी. ज़ाहिर है कि इनमें से कोई भी साम्प्रदायिक विमर्श का हिस्सा नहीं बने.

हिन्दू कुनबे को ख़तरा

एक अन्‍य चिंगारी सामाजिक सुधार के प्रति सशंकित हिन्दू साम्प्रदायिकों के भय को भड़का रही थी. हिन्दू विधवा का त्रासदीपूर्ण चित्र इसका प्रतीक था. उच्च जातियों में जिसके पुनर्विवाह कि पाबंदी थी - जिसका पालन अब संस्‍कृतकृत निम्न जातियों में भी किया जाने लगा था - वह अचानक ही "हिन्दू नस्ल" के ख़ात्मे के लिए ज़िम्मेदार ठहरायी जाने लगी क्योंकि वह पौरुषपूर्ण मुसलमान मर्दों के लिए प्रलोभन थी तथा हिन्दू कुनबे कि पुण्यात्मा के लिए ख़तरा थी क्योंकि वह उसको अपवित्र कर सकती थी. हिन्दू महिलाओं के "अपहरण" के मुद्दे का साम्प्रदायिकीकरण इस लैंगिक विभेद आधारित चिंता में बहुत ही सफाई से फिट बैठता था. 2002 में गुजरात नरसंहार के पहले भी इस प्रकार की अफ़वाहों की बाढ़-सी आ गयी थी. इस प्रकार संख्या के विमर्श में  पुरुषसत्ता, "राष्ट्रीयता" और महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा को समाहित कर दिया गया, प्रजनन योग्य  नारी शरीरों को भविष्य को लेकर पैदा किए गए भयों से बींध दिया गया और नरसंहार की राजनीति का खेल खेला गया.

इन ग्रुपों में ऐसे नेता हैं जो हिन्दुओं में परिवार नियोजन का यह कहकर विरोध करते हैं कि एक "जनसांख्यिकी युद्ध" चल रहा है (www.newkerala.com 2005).7 विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) के नेता हिन्दुओं को निर्देश देते हैं कि वो परिवार नियोजन न अपनाएं क्योंकि उनकी संख्या तेज़ी से घटती जा रही है जबकि मुसलामानों कि संख्या बढ़ रही है। हजारों कि उपस्थिति वाली एक जनसभा में, जिसमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मौज़ूद थे, संघ कि मध्य प्रदेश इकाई के नेता यह दावा कर रहे थे कि मुसलमानों कि आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है जो बांग्लादेसी मुसलमान घुसपैठयों के साथ मिलकर भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर सकते हैं. यह दावा करते हुए कि समूचे विश्व में एक "जनसांख्यिकी युद्ध" हो रहा है, उन्होंने कहा कि सोवियत  यूनियन का विघटन ऐसे ही "जनसांख्यिकी असंतुलन" कि वजह से हुआ था (द हिन्दू 2005:5). इन्हीं ग्रुपों ने गर्भपातकी सुविधा का यह कहकर विरोध किया है कि भारी तादाद में हिन्दू महिलाएं गर्भपात कि सुविधा का इस्तेमाल करती हैं (राव, 2001). जनगणना आयुक्त द्वारा 2001 की जनगणना में मज़हबी आधार पर आंकड़े जुटाने कि घोषणा के पश्चात उपजे एक अप्रिय विवाद के भी हम गवाह रहे हैं जो यह बात कहना भूल गए कि इन आंकड़ों कि तुलना 1991 कि जनगणना से नहीं की  जा सकती है क्योंकि 1991 में कश्मीर कि जनगणना नहीं कि गयी थी जो कि एक मुस्लिम बहुल राज्य है. हिन्दू दक्षिणपंथ ने इस बात का खूब हो-हल्ला मचाया कि "हमारे" ही देश में "उनकी" संख्या "हमारी" संख्या से ज्यादा होती जा रही है और इसमें राष्‍ट्रीय मीडिया ने काफी मदद पहुंचाई थी। ऐसा जनगणना आयुक्‍त के स्‍पष्‍टीकरणों और इस तथ्‍य के बावजूद जारी रहा कि मुसलमानों में जनसंख्‍या वृद्धि की दर में गिरावट हिंदुओं की अपेक्षा अधिक तीव्र थी।

नुस्‍बाम ने लिखा है कि उग्र पुरुषत्व का निर्माण शायद यूरोपीय किस्म के राष्ट्रवाद का एक हिस्सा है. इस प्रोजेक्ट की नक़ल करते हुए अन्य सम्प्रदाय, अन्य नस्लों के लोग भी यूरोपीय शैली के पुरुषत्व के निर्माण में लगे हैं. वह लिखती हैं कि इज़राइल और भारत दोनों ही इस उग्रपुरुषत्व की धारणा के निर्माण की स्थली हैं और दोनों ही मुसलामानों के ख़िलाफ़ हैं, जिनको औपनिवेशिक विमर्श में "लड़ाकू नस्लें" कहा गया है. वे लोग जिनकी स्त्रियोचित और बुद्धिजीवी कहकर खिल्ली उडाई गयी, अपनी पहचान का पुनर्निर्माण औपनिवेशिक आइने में करने का प्रयास करते हैं जो अतीत में उनके शोषकों की  शैली से सम्बंधित  है, ठीक वैसे ही जैसे कि वे इतिहास की औपनिवेशिक परिभाषाओं का पुनर्निर्माण करते हैं. संख्‍याओं के महत्‍व के समान ही गुजरात की त्रासदी के लिए ''नारी का विनाश'' - अपने अंदर की नारी का और परायी नारियों का भी - भी ज़िम्मेदार है . 

हम दो हमारे दो : वो पांच, उनके पचीस के नारे ने 2002 के गुजरात नरसंहार के नायक को शर्मनाक किन्तु भारी बहुमत से चुनाव जीतने में मदद की. लेकिन इसके सूत्र हिन्दुओं के तथाकथित शाकाहार और मांसाहारी मुसलामानों के यौनिक दुराचार से भी जुड़े हैं. सरकार लिखती हैं: "मुसलमान पुरुष के शरीर के कथित अति-पुरुषत्व तथा मुस्लमान स्त्री की अत्यधिक  ऊर्वरता के बारे में एक घृणित यौनिक सनक है" (सरकार 2002:2874). मुस्लिम स्त्रियों तथा बच्चों पर गुजरात नरसंहार के दौरान किये गए जघन्य आतंक का वर्णन करते हुए वह निम्न व्याख्या प्रस्तुत करती हैं: सांप्रदायिक  हिंसा में बलात्कार, एक कौम की सामूहिक रूप से बेइज्जती करने का प्रतीक है; जो पुरुष-प्रधान सम्प्रदाय स्त्री के शरीर को वंश का, सम्प्रदाय का और राष्ट्र का एवं उनकी शुद्धता का प्रतीक मानता है वही एक पूरी कौम को अशुद्ध और भ्रष्ट मानने लगता है ज्योंही, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार होता है. नियोजित तथा राजनीति से प्रेरित अफ़वाहें फैलायी जाती हैं की मुस्लिम मर्द हिन्दू बालाओं को फंसा रहे हैं - "एक प्रकार का लिंग द्वेष और पुन्सत्वहीनता की चिंता जो मात्र हिंसा के द्वारा ही शांत की जा सकती हैं". और अंत में पीढ़ियों से चली आ रही "मुस्लिम जन्म दर" की चिंता, उनका अनियंत्रित प्रजनन और हिन्दू राष्ट्र के खात्मे की चिंता "मुस्लिम नस्ल" के नए खून - मासूम बच्चों की बर्बर हत्या के रूप में सामने आयी. भविष्य के प्रति भय और चिंता पैदा करके भगवा जनसांख्यिकी जो काम करने में सफल होती है वह बेहद घातक है. यह अनैतिक नीतियों में लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देती है.


नोट्स
1.  IJHSसे रेफरी की रिपोर्ट.
2. प्रति मुहम्‍मद राव.
3. यह एक सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक की तरफ से है, जो नई दिल्‍ली में पेट्रियाटिक फ्रंट नाम के आरएसएस के एक मुखौटा संगठन से जुड़े हैं। वह मुस्लिम जनसांख्यिकी से भारत को होने वाले खतरे के बारे में अब विभिन्‍न मंचों से लगातार पत्र प्रस्‍तुत करते रहते हैं, और ये सभी मंच आरएसएस द्वारा आयोजित नहीं होते। इसलिए यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि भारतीय पुलिस बल में सांप्रदायिकता गहरे पैठी हुई है।
4. यानी कि, एक ही समय में एक से अधिक स्त्रियों से विवाहित पुरुष। सांप्रदायिकों की दलील है कि मुसलमानों को चार पत्नियां रखने की अनुमति है और वे ऐसा करते हैं जबकि हिंद केवल एक ही स्‍त्री रख सकता है। यहीं से गढ़ा गया है यह ''लोकप्रिय'' नारा : हम दो, हमारे दो; वो पांच, उनके पच्‍चीस। हम दो हमारे दो, बेशक भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम का नारा है।
5. उत्‍सुकता की बात है कि, इसी समय के आसपास, सिडनी वेब ने इंग्‍लैंड की जनसंख्‍या में यहूदियों और आयरिश लोगों की संख्‍या के बढ़ने के परिणामस्‍वरूप अंग्रेजों की ''नस्‍लीय आत्‍महत्‍या'' से चिंतित होकर, अपना प्रबंध द डिक्‍लाइन ऑफ द बर्थ रेट लिखा था (जयाल, नीरजा गोपाल (सं) (1987), सिडनी और बिएट्रिस वेब: इंडियन डायरी, ओयूपी, दिल्‍ली).
6. आरएसएस के संस्‍थापक गोलवलकर नस्‍लीय शुद्धता संबंधी हिटलर के प्रयोगों के बड़े प्रशंसक थे। हिटलर की तरह, एक उग्र प्रबोधन विरोधी विमर्श में वे राष्‍ट्र की परिभाषा रक्‍त संबंधों के राष्‍ट्र के रूप में देते हैं, जो एक प्राचीन संस्‍कृति में समाहित पुरातन संबंधों से बना हो। उनकी दलील थी कि केवल वे ही भारतीय नागरिक हो सकते हैं जिनके धर्म का उद्भव भारत में हुआ है, और इस तरह इसाइयों, मुसलमानों, पारसियों और यहूदियों को वे ''बाहरी'' करार देते हैं। वे लिखते हैं: ''नस्‍ल और संस्‍कृति की पवित्रता बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने सामी नस्‍लों, यहूदियों, का सफाया करके पूरी दुनिया को हतप्रभ कर दिया। यहां नस्‍लीय गर्व अपने चरम रूप में प्रदर्शित होता है। जर्मनी ने यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार एक दूसरे से मूलत: भिन्‍न नस्‍लों और संस्‍कृतियों का एक दूसरे के साथ सहमेल  और एकताबद्ध हो पाना कितना मुश्किल है। यह हम हिंदुस्‍तानियों के‍ सीखने के‍ लिए और हमारे फायदे के लिए एक बढ़िया पाठ है। (गोलवलकर (1947), वी, ऑर अॅवर नेशनहुड रीडिफाइंड, भारत पब्लिकेशंस, नागपुर).
7. http://www.newkerala.com/ (30 December 2004), ''विहिप सुप्रीमो ने हिंदुओं से परिवार नियोजन न करने को कहा''। पीटीआई ने 29 दिसंबर 2004 को रोहतक से रिपोर्ट किया कि विहिप अध्‍यक्ष अशोक सिंघल ने हिंदुओं से परिवार नियोजन न करने को कहा ताकि उनकी आबादी कम न होने पाए। विहिप के न्‍यासियों के अंतरराष्‍ट्रीय बोर्ड और केंद्रीय प्रबंध समिति की बैठक के उद्घाटन सत्र में उन्‍होंने कहा कि अल्‍पसंख्‍यकों, खासकर मुसलमानों की आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि 50 वर्षों में यह आबादी का 25 से 30 प्रतिशत हिस्‍सा हो जाएगी। सिंघल ने कहा कि अगर हिंदु अपनी आबादी नहीं बढ़ाते तो यह उनके लिए आत्‍महत्‍या करने के समान होगा। उन्‍होंने कहा कि हिंदुओं की धार्मिक आज़ादी के लिए जरूरी है कि अयोध्‍या में राम मंदिर का निर्माण कराया जाए। इसके अतिरिक्‍त, मार्गदर्शक मंडल, शीर्ष निकाय की बैठक में फरवरी 2005 में एक प्रस्‍ताव पारित किया गया जिसमें भगवान कृष्‍ण के माता-पिता द्वारा स्‍थापित आदर्श परिवार की संख्‍या का अनुसरण करने और ''हिंदु आबादी को सृजनात्‍मक तरीके से बढ़ाने में योगदान करने'' के लिए कहा गया। (''विहिप ने हिंदुओं को दो बच्‍चे का नियम त्‍यागने को कहा'', द स्‍टेट्समैन, बुधवार 16 फरवरी 2005)। इस प्रस्‍ताव ने बांग्‍लादेशी घुसपैठ पर भी नियंत्रण लगाने और हिंदू लड़कियों का मुसलमानों लड़कों से विवाह करने पर भी रोक लगाने को कहा गया। प्रस्‍ताव ने संकेत किया कि हिंदू भगवान कृष्‍ण अपने माता-पिता की आठवीं संतान थे जैसे कि स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी नेताजी बोस भी थे, और विख्‍यात भारतीय कवि रवीन्‍द्रनाथ टैगोर नौवीं संतान थे।

संदर्भ
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