शोहिनी घोष
अयोध्या मामले का फैसला हिन्दू बहुसंख्यावाद की स्वीकारोक्ति है। इस कारण से, यह समान रूप से आस्थावनों और अनास्थावादियों दोनों की चिंता का विषय है, और इसे सर्वोच्च न्यायालय में अवश्य चुनौती दी जानी चाहिए।अयोध्या मामले में उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से, 'आगे बढ़ने' और सुलह के लिए बातचीत करने का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह केवल संघ परिवार की ओर से ही नहीं, बल्कि, उन लोगों की ओर से भी आ रहा है, जो अतीत में राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की तीखी आलोचना करते रहे हैं। इस फैसले को अपनी जीत मान कर छाती ठोकने वाले हिंदुत्व के पक्षधरों की आलोचना बहुत कम हो रही है जो, प्रत्येक टीवी शो में, यह दावा करने में व्यस्त हैं कि चूंकि मुसलमानों की 'हार' हो चुकी है, इसलिए अब उन्हें अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में मदद करनी चाहिए। हिंदुत्व के इन झंडाबरदारों से जब पूछा जाता है कि क्या वे मस्जिद बनाने में मदद करेंगे, तो वे एक सधी चुप्पी साध लेते हैं। लेकिन इससे 'आगे बढ़ने' की बात करने वाली ब्रिगेड पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
मुझे धक्का लगा जब पंकज वोहरा ने मांग की (बिटवीन अस, 4 अक्टूबर, हिंदुस्तान टाइम्स) कि ''मुस्लिम समूह थोड़ी से उदारता दिखाते हुए मंदिर निर्माण का विरोध न करें'' क्योंकि भले ही यह ''कानूनी तौर पर अतर्कपरक'' लगे, लेकिन भगवान राम ''अधिकांश हिंदुओ के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान'' रखते हैं। इससे मुझे सड़कों पर होने वाले उन झगड़ों की याद आती है जिनमें बड़े वाहनों के मालिक दबंगई के द्वारा छोटे वाहनों के मालिकों को झुकने के लिए मजबूर करते हैं, भले ही गलती उनकी हो। भीड़ दोनों पक्षों से झगड़े को खत्म करके 'आगे बढ़ने' का अनुरोध करती है और आमतौर पर छोटे वाहन के मालिक पीछे हटने के लिए मजबूर किया जाता है। तो वास्तव में यहां क्या कहा जा रहा है? यह कि हिंदुओं की आस्था है और मुसलमानों की नहीं?
निश्चित तौर पर, राम भक्त भी यह स्वीकार करेंगे कि अनास्थावादियों और मुझ जैसे नास्तिकों की भी आस्था होती है। (सोचिए क्या होता, अगर अदालतें अयोध्या मामले में मेरी ''आस्था'' को आधार बनाने का निर्णय करतीं।)
वोहरा की पहुंच, इस निर्णय के पीछे काम कर रही सोच के करीब है, जोकि राम जन्मभूमि आंदोलन का भी तर्क है। लाल कृष्ण आडवाणी ने हमेशा यही कहा कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि राम उस स्थान पर वास्तव में पैदा हुए थे या नहीं, क्योंकि यह 'आस्था' का मामला है। आज, इस अस्पष्ट, अमूर्त भावना को कानूनी पहचान मिल गयी है, जिससे वह आंदोलन फिर से पुनर्जीवित हुआ है जोकि अपनी ही निरर्थकता के बोझ तले ढह गया था। किसका धर्म किसका देश (मीडियास्टॉर्म कलेक्टिव, 1990) डॉक्यूमेंट्री के एक फिल्मकार के रूप में, हमने शिलान्यास के दौरान फैले 'घृणा के प्रदर्शन' को देखा था (और उसे रिकॉर्ड किया था)। ऐसे ही एक प्रदर्शन में, 'रामलला' गाय के बगल में बैठे हुए हैं और पाठ कहता है: ''गोहत्या करने वालों की हत्या करना हर हिंदू का धार्मिक कर्तव्य है।'' यह ऐसे अनेक पोस्टरों में से सिर्फ एक था। क्या यही वह ''आस्था'' है जिसका हमें आदर करना चाहिए? क्या हम हर उस मंजर को भूल जाएं जो हमने देखा है?
यदि अयोध्या पर इस फैसले को चुनौती नहीं दी गई, तो भारत के संविधान के कुछ श्रेष्ठ विचारों के लिए खतरनाक होगा। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में अवश्य ले जाया जाना चाहिए क्योंकि हम ठोस साक्ष्य या एएसआई की एक त्रुटिपूर्ण रिपोर्ट (जिसे विशेषज्ञों ने खारिज किया है) के स्थान पर 'आस्था' को स्वीकार नहीं कर सकते, और सबसे बढ़कर, अप्रत्यक्ष रूप से बाबरी ढांचे के विध्वंस को इस तर्क से जायज नहीं ठहरा सकते कि मध्य गुंबद के नीचे राम की जन्मस्थली है। यह फैसला ''न्याय प्रशासन'' का उदाहरण नहीं, बल्कि हिंदू बहुसंख्यावाद की स्वीकारोक्ति है। इस कारण से यह समान रूप से आस्थावानों और अनास्थावादियों दोनों की चिंता का विषय है। यदि वादी पुनर्विचार का विकल्प चुनते हैं तो दूसरे पक्षों को सुप्रीम कोर्ट में अपील करना चाहिए और लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता आस्था बहाल करने की मांग करनी चाहिए।
(शोहिनी घोष एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं)
(हिंदुस्तान टाइम्स से साभार)
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