30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च-न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दिए फैसले में इतिहास,तर्क और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जो गति हुई है वह गहन चिंता का विषय है. सर्वप्रथम यह दृष्टिकोण,कि बाबरी मस्जिद किसी हिन्दू मंदिर के स्थान पर बनाई गई थी और जिसका तीन में से दो न्यायाधीशों ने समर्थन किया है, उन साक्ष्यों पर गौर नहीं करता जो इस तथ्य के विपरीत हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा स्वयं कराई गई खुदाइयों में सामने आये हैं: जानवरों की हड्डियों की सर्वत्र मौजूदगी और साथ ही साथ सुर्खी और चूने के गारे का इस्तेमाल (जो सब मुस्लिम उपस्थिति के अभिलक्षण हैं) वहाँ मस्जिद के नीचे किसी हिन्दू मंदिर के मौजूद रहे होने की सम्भावना को नकारते हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वे की विवादास्पद रिपोर्ट जिसने 'आधार स्तंभों' की बिना पर इसके विपरीत बात कही, ज़ाहिर तौर पर कपटपूर्ण थी क्योंकि कोई खम्भे पाए ही नहीं गए, और 'आधार स्तंभों' की कथित मौजूदगी पुरातत्ववेत्ताओं के बीच विवाद का विषय रही है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि एएसआई द्वारा करवाई गई खुदाई से जुड़ी साइट नोटबुकें, कलाकृतियाँ और अन्य भौतिक प्रमाण विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा परीक्षण हेतु उपलब्ध कराए जाएँ.
इस तथ्य के बारे में भी कोई सुबूत पेश नहीं किया गया है कि भगवान राम की जन्मस्थली वहीं है जहाँ मस्जिद थी ऐसी हिंदू मान्यता, 'आदिकाल' से तो क्या हाल के वर्षों से थोड़ा पहले मौजूद भी थी. यह फैसला इसलिए गलत तो है ही कि यह इस मान्यता की प्राचीनता को स्वीकार करता है, बल्कि यह बात बेहद तकलीफदेह भी है कि इस स्वीकरण को मिल्कियत की हकदारी का फैसला करने के तर्क में तब्दील किया गया. यह न्याय और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है.
इस निर्णय की सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि यह हिंसा और बाहुबल को जायज़ ठहराता है. यह फैसला 1949 में हुई जबरन घुसपैठ को तो मान्य करता है जिसमें मस्जिद की गुम्बदों के नीचे मूर्तियाँ रखी गईं, पर अब यह बिना किसी तार्किक आधार के यह मान्य करता है कि उस स्थानान्तरण ने मूर्तियों को उनकी उचित जगह दिलाई. और भी आश्चर्यजनक बात यह है कि यह फैसला (जी हाँ, उच्चतम न्यायालय के ही आदेशों की अवज्ञा करते हुए) 1992 में हुए मस्जिद के विध्वंस को ऐसे कृत्य के तौर पर स्वीकार करता है जिसके नतीजे मंदिर बनाने की दुहाई देने वालों को मस्जिद के मुख्य हिस्से हस्तांतरित करके स्वीकार करने पड़ेंगे.
इन सारी वजहों से हम इस फैसले को हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को लगे आघात के तौर पर देखते हैं. इस मामले में आगे जो भी हो, देश जिसे खो चुका बदकिस्मती से वह तो ठीक होने से रहा.
रोमिला थापर, के.एन.श्रीमाली, डी.एन.झा, के.एन.पणिक्कर, अमिय कुमार बागची, इक़तिदार आलम खान, शीरीं मूसवी, जया मेनन, इरफ़ान हबीब, सुवीरा जैसवाल, केशवन वेलुथात, डी. मंडल, रामकृष्ण चटर्जी, अनिरुद्ध राय, अरुण बंदोपाध्याय, ए. मुरली, वी.रामकृष्ण, अर्जुन देव, आर.सी.ठकरान, एच.सी.सत्यार्थी, अमार फारुक़ी, बी.पी.साहु, बिस्वमय पती, लता सिंह, उत्सा पटनायक, ज़ोया हसन, प्रभात पटनायक, सी.पी.चंद्रशेखर, जयती घोष, अर्चना प्रसाद, शक्ति काक, वी.एम.झा, प्रभात शुक्ल, इंदिरा अर्जुन देव, महेंद्र प्रताप सिंह और अन्य.
(सहमत द्वारा जारी, 'एक जिद्दी धुन' ब्लॉग से साभार)
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